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________________ मारता ही रहूँगा। मैं पूरा बदला लूँगा । इत्यादि द्वेषभाव से मरे हुए शत्रु के प्रति भी भावि में बदला लेने की वृत्ति से वह छोडना नहीं चाहता है । किसी भी स्थिति में कृतनिश्चयी है । और नियाणा कोई इच्छा मात्र से या विचार व्यक्त कर देने मात्र से ही थोडा ही जाता है ? इसके लिए बहुत बड़ी कीमत चुकानी पडती है। अब जो भी, जितना भी धर्म-तपश्चर्या-व्रत-जपादि करेगा उसके फल के रूप में एक मात्र अपनी रागेच्छा, या द्वेषेच्छा के निदान करण को निकाचित करता जाता है । परिणाम स्वरूप भविष्यकाल में वैसा करके ही रहता है। उपरोक्त चारों प्रकार के आर्तध्यान हैं । कषायभाव जनित हैं। राग-द्वेषांत्मक हैं। चिन्ताकारक हैं । आर्त-दुःख-पीडाकारक हैं । मोहादि भावों से कलुषित विचारधारावाले हैं। इसलिए संसार बढानेवाला संसारवर्धक है । कष् = संसार और आय = अर्थात् लाभ ऐसे कषायभाव का सीधा अर्थ संसार की वृद्धि का लाभ करानेवाला है। इसका : रहस्यार्थ यह है कि...ऐसा आर्तध्यान करनेवाला जीव मरकर तिर्यंचगति-पशु-पक्षी की गति में जाकर जन्म लेता है । इससे सिद्ध होता है कि संसार बढा । अतः आर्तध्यान संसारवृक्ष का बीजरूप है । ध्यान शतक ग्रन्थ के सीधे शब्द इसी प्रकार के हैं एवं चउव्विहं रागद्दोस मोह कियस्स जीवस्स। अट्टझाणं संसारवद्धणं तिरियगइ मूलं ।। रागो दोसो मोहो य जेण संसार हेयवो भणिया। अटुंमि य ते तिण्णि वि, तो तं संसार तरू बीयं ।। इस प्रकार के आर्तध्यान-चिन्ताकारक विचारधारा से बचना ही चाहिए। सही ध्यान की जो कल्पना की जाती है यद्यपि वैसा ध्यान तो नहीं है। फिर विचारात्मकता–चिन्ताकारकता तथा स्थिरताकारकता होने के कारण ध्यान की गणना में ही आता है । भले ही खराब-अशुभ की कक्षा का है लेकिन है तो ध्यान । इससे बचना ही चाहिए। आर्तध्यान के ४ लक्षण अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्तं । तं जहा कंदणया, सोयणया, तिप्पणया, परिदेवणया। स्थानांगसूत्र के ४/१/१२ सूत्र में आर्तध्यान के ४ लक्षण बताए हैं । आर्तध्यान के चारों भेदों में से किसी एक की प्रबलता होने से सकर्मी (भारी कर्मी) जीवों में कर्म की आध्यात्मिक विकास यात्रा १००८
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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