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________________ ३) रोगार्त - आर्तध्यान “शरीरं खलु रोगमंदिरम्" । यह शरीर रोगों का घर है । हमारे शरीर के जितने रोमकूप हैं उससे भी हजारगुने ज्यादा रोग हैं। एक एक रोमकूप में कितने ही रोग इकट्ठे हो सकते हैं । माता के गर्भ में रहा हुआ भ्रूण भी रोगग्रस्त हो सकता है । गर्भ से जन्म लेते समय भी कई रोगों को साथ में लेकर भी जीव जन्म ले सकता है। एक बच्चा जन्म से कॅन्सर साथ लेकर जन्मा और कुछ ही काल में कालकवलित हो गया। इसी तरह आज कई बच्चे जन्मजात इस को साथ लेकर जन्म लेते ही हैं । अतः उनका रक्षक त्राता कौन हो सकता है ? जब किसी को कोई भी सामान्य या विशेष बडा भी रोग हो जाय तो ... वह बिमारी कैसे मिटे ? कब मिटे ? इसकी चिन्ता निरंतर रहती है। एक तरफ तो सहनशीलता दिन-दिन घटती ही जाती है । और रोग बढते ही जाते हैं । एक तरफ सुखैषणा और दूसरी तरफ रोगग्रस्तता और तीसरी तरफ सहनशीलता का घटते ही जाना । ऐसी स्थिति में दुःखात्मक रोग से बचने की इच्छा निरंतर किसकी नहीं रहती ? यह तीसरे प्रकार का आर्तध्यान ही है । 1 ४) भोगेच्छा - नियाणा-निदानकरण I भोग की अतृप्त तृष्णा, अधुरी इच्छा भावि में भी उन भोगों के भोगने की इच्छा को बढाता ही रहता है । परिणामस्वरूप मुझे स्वर्ग के सुख भी भोगने को मिले, मैं भी स्वर्ग की अप्सराओं को भोगूँ, ऐसे भावि - भविष्यकालीन स्वप्ने संजोते रहता है। दिवास्वप्न या शेखचिल्ली के विचारों की तरह दिन में तारे देखने की इच्छा से व्याकुल रहता है । यहाँ तक कि वर्तमान में व्रत -तप - जपात्मक धर्म भी करता है । शायद एक नहीं अनेक उपवासादि करते हुए अट्ठाई - तथा मासक्षमणादि की उग्र एवं दीर्घ तपश्चर्या करके भी इन्द्र के साम्राज्य की प्राप्ति की इच्छा, स्वर्ग के राजपाट की प्राप्ति की इच्छा, यहाँ राष्ट्रपति पद की इच्छा, विश्वभर के राज्य की प्राप्ति और मैं उसका स्वामी भोक्ता बनूँ, ६ खंड का चक्रवर्ती का राज्य मुझे मिल जाय और मैं उसका मालिक चक्रवर्ती बनूँ, ऐसी तीव्र इच्छा रहती है यह सब क्या है ? मैं स्वर्ग में देव बनूँ । इस पृथ्वी का भोक्ता बनूँ, इन प्रकार की भावि की भोगेच्छाओं को पूरी करने की चिन्ता यह भी आर्तध्यान है । इसे नियाणा - निदान कहते हैं। यह रागात्मक नियाणा है । और ठीक इससे विपरीत द्वेषात्मक नियाणा है । इसमें द्वेषभाव के साथ वैर-वैमनस्य दुश्मनी का भाव ज्यादा रहता है। बस, मैं उसको भविष्य में भी मारूँगा । अगले जन्मों में भी नहीं छोडूंगा । अरे ! जनम-जनम तक मैं इसको 1 ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास" १००७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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