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________________ कहलाते हैं । ये एक मात्र मोहनीय के विषय हैं । इन चारों का संक्षिप्तीकरण करते हुएदो में समावेश कर दिया १) इष्टप्रिय) संयोग, २) अनिष्ट वियोग। १) अनिष्ट वियोग संसार में सैंकडों वस्तुएँ अनिष्ट हैं, अप्रिय रूप से नापसंद हैं । ऐसी मिलनी तो नहीं चाहिए लेकिन हो तो भी उसका वियोग होना चाहिए । दुःख अप्रिय ही होता है । अतः उसका टलना ही अच्छा लगता है । और जब इसी का विपरीत भाव अर्थात् अनिष्ट संयोग हो जाय, जैसे आग लग जाय, घर में, दुकान में चोरी हो जाय, नई कीमती घडी कोई उठा ले जाय । यह सब बिल्कुल पसंद नहीं है । किसी दुश्मन का आगमन हो जाय, कोई जेलादि की सजा हो जाय । ये सब निमित्त अप्रिय नापसंद हैं । इसके लिए जीव सतत चिन्ताग्रस्त रहता है । बस, यही आर्तध्यान है। अमणुनाणं सद्दाइविसयवथ्यूण दोसमालिणस्स। धणियं विओगचिंतणमसंपयोगाणुसरणं च ॥१॥ ध्यानशतक में कहा है कि- मन को पसंद न हो ऐसे वर्ण गंध, रस, स्पर्श, शब्दादि विषयों तथा वस्तुओं का द्वेष भाव से मलिन मन के द्वारा अत्यन्त वियोग की चिन्ता करना और फिर कहीं मिल न जाय ऐसी इच्छा—चिन्ता करना ही अनिष्ट संयोगात्मक आर्तध्यान है । पाँचों इन्द्रियों के २३ विषयों की चिन्ता आर्तध्यान ही है। २) इष्ट वियोग मनोज्ञ—पसंद—प्रिय पदार्थ जो भी चाहिए उनका वियोग न हो जाय, चले न जाय यह भी चिन्ता लगी रहती है । पत्नी, पुत्र, धन, संपत्ति, राजवैभव, सुख की साधन सामग्री आदि संसार की सैंकडो इष्ट प्रिय वस्तुएँ हैं । ये कहीं छूट न जाय, चली न जाय, यह सत्ता-पद-प्रतिष्ठा मिली है, यह कहीं हाथ से चली न जाय, इसकी चिन्ता नहीं छूटती। या फिर वियोग हो जाय तो रात दिन की चिन्ता लागू हो जाती है। विदेश से बडी कीमती चीज लाई और वह कोइ चुरा न जाय इसकी चिन्ता सतत परेशान करती है। और एक दिन पत्नी आगंतुक महेमानों को दिखा रही थी कि अचानक हाथ से गिर गई और फूट गई। अब चिन्ता पहले से दस गुनी ज्यादा बढी । इसी तरह सभी विषयों में होता है । ऐसे मनोज्ञ—प्रिय विषयों एवं वस्तुओं का वियोग नहीं होना चाहिए। यह आर्तध्यान भी चिन्ताकारक ही है। १००६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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