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आर्तध्यान के ४ भेद
आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः॥ ९/३१ ।। वेदनायाश्च ।। ३२ ॥ विपरीतं मनोज्ञानाम् ।। ३३ ॥ निदानं च ॥३४॥-तत्त्वार्थ सूत्र.
अनिष्टयोगजं चाद्य परं चेष्टवियोगजम्।
रोगार्तं च तृतीयं स्यात् निदानातं चतुर्थकम् ।। ७० ॥ अट्टे झाणे चउब्बिहे पण्णते, तं जहा–अमणुन्नसंपओग संपउत्ते, तस्स विप्पओगसति समण्णागए यावि भवइ । मणुन संपओग संपउत्ते, तस्स अविप्पओग सति समण्णागए यावि भवइ । आयक संपओग संपउत्ते, तस्स विप्पओग सति समण्णागए यावि भवइ । परिजुसिय काम भोग संपओग संपउत्ते, तस्स विप्पओग सति समण्णागए यावि भवइ ।। ठाणांगसूत्र ४/१, १२ ॥
इस तरह ठाणांग आगम सूत्रकार, तत्त्वार्थकार आदि ने आर्तध्यान के ४ भेद बताकर विवक्षा की है। आर्तध्यान संसारवृद्धिकारक है । अतः इसके सभी विषय संसार के, तथा एक मात्र मोहनीय कर्म के विषय हैं।
१) अनिष्ट संयोग, अमनोज्ञ वियोग चिन्ता
२) इष्ट वियोग- मनोज्ञ अवियोग (संयोग) चिन्ता - ३) आतंक (रोग) चिन्ता
४) भोगेच्छा–भोगार्त, नियाणा, निदानकरण संसार में अनन्तानन्त वस्तुएँ हैं । एक ही जीव को सभी वस्तुएँ प्रिय या अनुकूल हो, या अप्रिय-प्रतिकूल हो यह भी संभव नहीं है । संभव है किसी को कुछ प्रिय-पसंद हो और कुछ अप्रिय नापसंद भी हो । अतः इसके आधार पर ४ भेद होते हैं- १) इष्ट (प्रिय) संयोग, २) इष्ट(प्रिय) वियोग, ३) अनिष्ट (अप्रिय) संयोग, ४) अनिष्ट(अप्रिय) वियोग
१) इष्ट जो प्रिय वस्तु है वह चाहिए । उसका संयोग हो, मिल जाय तो अच्छा ऐसी इच्छा सतत रहती है । २) दूसरी तरह इष्ट प्रिय वस्तु का कहीं वियोग हो न जाय, कहीं कोई चुरा न जाय, यह भी एक चिन्ता लगी रहती है । ३) अनिष्ट–अप्रिय वस्तु जो नहीं चाहिए वह कहीं आ न जाय, मिल न जाय । इसकी अनिच्छा की चिन्ता लगी रहती है । ४) और इसी तरह अप्रिय-नापसंदगी की वस्तु कोई ले जाय तो अच्छा यह भी एक चिन्ता का ही प्रकार है । इन चारों प्रकार की इच्छाओंवाले जीव संसार में हैं, वे सभी आर्तध्यान के ध्यात
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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