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________________ आवश्यक अवचूरी-तथा सन्मति आदि अनेक शास्त्रों ग्रन्थों में आर्त–रौद्र-धर्म और शुक्ल ध्यान के भेद से ध्यान ४ प्रकार का दर्शाया है । अतः शुभ-अशुभ के भेद की विवक्षा से कह सकते हैं इस तरह फल विवक्षा की दृष्टि से ध्यान दो प्रकार का होता है । एक तो निर्वाण साधक अर्थात् मोक्ष का फल देनेवाला-प्राप्त कराने में सहायक-ऐसा ध्यान शुभ ध्यान कहलाता है । और ठीक इससे विपरीत संसारवर्धक अर्थात् संसार बढानेवाला भव परंपरा का कारण बननेवाला अशुभ ध्यान कहलाता है । जैसा ध्यान वैसा फल । यदि ध्यान अच्छा सही शुभ की कक्षा का होता तो संसार का कर्म का क्षय होता, निर्जरा होती और जीव ऊर्ध्वगमन करता । लेकिन इससे विपरीत होने से कर्म का बंध ज्यादा होता है, अतः संसार-भव परंपरा बढ़ती है। ऐसा संसारवर्धक ध्यान अशुभ प्रकार का कहलाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि कौन कैसा ध्यान कर रहा है । यह तो किसी को कैसे पता चले? क्योंकि ध्यान मनोगत-आन्तरिक प्रक्रिया है । अतः दृष्टिगोचर तो कुछ भी संभव नहीं है । परन्तु फल के आधार पर समझा जा सकता है कि इसका ध्यान सही शुद्ध कक्षा का है या नहीं? कारण से भी कार्य का अनुमान हो सकता है और कभी कार्य से भी कारण का अनुमान भी हो सकता है। ठीक इसी तरह यहाँ भी यही है । निर्वाण की प्राप्तिरूप मोक्ष फलदायक होने के कारण ध्यान सर्वोच्च कक्षा का शुभ, शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम कक्षा का था। और यदि इससे विपरीत संसार की वृद्धि-भव परंपरा का फल देनेवाला हो तो उसे अशुभ अशुभतर-अशुभतम कक्षा का ध्यान भी कहा जा सकता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि.. मात्र ध्यान करना ही महत्व का नहीं है परंतु ध्येय का साफ होना और उसका निश्चित लक्ष्य होना ध्यान की शुद्धि का सूचक है। अशुभध्यान अशुभफलसूचक है । और शुभध्यान शुभफलसूचक है । सच तो यह है कि... अशुभध्यान को ध्यान ही क्या कहना? यह तो चिन्ता मात्र है । आर्त का अर्थ है दुःख-पीडा, तकलीफ-कष्टादि । ऐसी संसार की अनेक वस्तुओं की प्राप्ति आदि की इच्छा करके उसे तीव्र करके जीव पाना चाहता है । बस, उसी की चिन्ता में फसा रहता है। बाहर ही नहीं निकल पाता है। उसे चिन्तात्मक ध्यान कहा गया है। बस, यही अशुभ ध्यान कहलाता है। संसार की समस्त जीवसृष्टि में अधिकांश प्रधानरूप से आर्तध्यान बहुत ज्यादा रहता है। प्रायः सभी जीव इसके आधीन होकर. आर्तध्यान विषयक विचारधारा रखते हैं। १००४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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