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________________ मन आत्मा की परिधि में ही रहे, उस परिधि से बाहर न जाने को ही स्थिरता कहते हैं और ऐसा स्थिर चित्त ही ध्यान कहलाता है। जैसे ही स्थिरता भंग हई और मन बाहर भागा कि बाह्य विषयों में लिपट जाता है । यह अस्थिरता प्रमाद जनित है । यद्यपि बाहरी विषयों में जाना भी ध्यान है क्योंकि वहाँ भी विचारधारा प्रवृत्त है । अतः वह भी ध्यान ही कहलाता है। सिर्फ भेद इतना ही है कि.. वह अशुभ ध्यान है। ध्यान के भेद-मन जो विचारात्मक स्थिति में सतत रहता है उसके प्रत्येक विचार का विषय भी रहता ही है और विषय ज्ञेय पदार्थों के साथ संलग्न रहते ही हैं। लेकिन कैसे ज्ञेय पदार्थ, कैसे विषय की विचारणा रहती है उस पर ध्यान का आधार रहता है। इसी कारण ध्यान की शुभाशुभता बनती है । संसार में मूलभूत द्रव्य दो ही तो हैं । एक तो चेतनात्मा जो स्वयं ध्याता अर्थात् ध्यान का कर्ता है। और दूसरी तरफ जड-अजीव-निर्जीव पदार्थ है जो ध्याता के ध्यान का विषय बनता है । अरे ! चेतन आत्मा स्वयं ही अपने ध्यान का विषय ध्येय बनना चाहिए। उसके बजाय मोहवश जीवात्मा बाहरी पदार्थों को अपने ध्यान का विषय बना देता है । परिणामस्वरूप ध्यान बिगड जाता है । विकृत हो जाता है । वही अशुभ ध्यान कहलाता है । ठाणांग सूत्र आगम में कहते हैं___चत्तारि झाणा पण्णत्तं, तं जहा- अट्टे झाणे, रोहे झाणे, धम्मे झाणे सुक्के झाणे।- ठाणांगसूत्र ४। १। १२ । “आर्त-रौद्र-धर्म-शुक्लानि"- तत्त्वार्थ सूत्र तथा-ध्यान शतक में- “अटुं रुदं धम्मं सुक्कं झाणाई" इसी तरह ध्यान दीपिका में कहा है आर्त रौद्रं च दुर्ध्यानं प्रत्येकं तच्चतुर्विधम्। अर्ते भवमथार्तं स्यात् रौद्रं प्राणातिपातजम्।। ६८॥ अट्ट १. रुदं, २. धम्मं, ३. सुक्कं, ४. झाणाइं तत्थ अंताई। निव्वाण साहणाई भवकारणमट्टरुद्दाइं॥५॥ ध्यान के भेद आर्त ध्यान रौद्र ध्यान धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान ध्यान साधना से आध्यात्मिक विकास" १००३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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