SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन आता रहता है । बहती हवा के कारण दीपक की लौ या मोमबत्ती की लौ स्थिर नहीं 1 रह सकती है । वह अस्थिर प्रकार की लौ सतत हिलती डुलती ही रहती है । लेकिन जैसे ही दीपक को आप किसी खडे डिब्बे में रख दें, या फिर चारों तरफ कोई हवा का रोधक कुछ भी खड़ा कर देंगे तो लौ स्थिर हो जाएगी । तलघर के कमरे में जहाँ हवा नहीं आ हो वहाँ दीपक की लौ कितनी ज्यादा स्थिर रहती है ? और ज्यों ही हलका सा हवा का झोंका आया कि लौ फिर स्थिरता खो बैठती है और अस्थिर बनकर जैसे मानों नाचने लगती है । जैसे नाचनेवाली नर्तकी स्थिर नहीं रह सकती है, उसे प्रतिक्षण अपने प्रत्येक I अंग को हिलाना ही पडता है । कभी कभी भरत नाट्यम् का नृत्य करती नर्तकी कुछ क्षणों तक यदि अंगों को न हिलाते हुए स्थिर हो जाय तो दर्शक नाराज हो जाते हैं । स्तब्ध हो जाते हैं। आखिर नृत्य है, उसे तो संगीत की ताल के साथ नाचना ही अनिवार्य है । ठीक इसी तरह मन भी नाचता ही रहता है। दीपक की लौ जैसे बाहरी हवा के कारण नाचती .. ही रहती है, या नर्तकी बाह्य संगीत की सुरावली की ताल के साथ थिरकती ही रहती है, या सरोवर का जल बाहर से आनेवाले एक कंकंड के कारण चलायमान हो जाता है, और उसमें उत्पन्न वमल चारों दिशा में फैलते ही जाते हैं, बस, सरोवर की शान्ति भंग हो गई । अशान्ति फैल जाती है । 1 1 1 I ये तीनों ही दृष्टान्त चल चित्त के हैं। ठीक ऐसा ही यह चंचल - चपल मन है भावनादि में विषयान्तर होता ही रहता है । जहाँ विषयान्तरिका का प्रमाण ज्यादा रहता है वहाँ ध्यान नहीं आता है । अतः ध्यान स्थिरता में ही होता है । तीनों दृष्टान्तों में देखेंगे की चंचलता - अस्थिरता का कारण बाहरी है । दीपक की लौ को अस्थिर करनेवाला तत्त्व बाहरी हवा है । नर्तकी को नचाते रहनेवाला बाहरी संगीत है । और सरोवर को अशान्त करनेवाला बाहरी तत्त्व कंकड है । अतः निश्चित है कि बाहरी तत्त्व ही अस्थिर करता है । चंचलता-चपलता लाता है । 1 I ठीक इसी तरह हमारे लिए भी अस्थिरताकारक बाहरी कारण है । चिन्ता के सभी विषय बाहरी है। शरीर, धन- -संपत्ति, विषयादि बाहरी पदार्थ हैं । ये बाहरी निमित्त जैसे ही मन में आते हैं कि किसी भी तरह मन चंचल-चपल हो ही जाता है । और अनादिकालीन स्वभाव यही है कि आत्मा बहिर्मुखी ही बनी हुई है । अतः बाहरी विषयों में मन भागता ही रहता है । अतः यह चंचल-चपल रहता है । बस, ध्यान क्या करता है ? मन का अन्तर्मुखीकरण करता है । अन्तर का सीधा अर्थ है - आत्मा के सन्मुख बनना । आत्मविषयक चिन्तन करना । अपने ही अन्दर के गुणों का चिन्तन करना है । बस, यही आध्यात्मिक विकास यात्रा १००२
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy