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शान्तसुधारस में कहते हैं कि- ये ज्ञानादि, अनित्यादि, तथा मैत्री आदि भावनाएँ चित्त को शुभ धर्मध्यान में जोडने के लिए हेतुभूत बनती है । ऐसा शास्त्रकार महर्षी फरमाते हैं। शुभ भावनाएँ “भवनाशिनी” कहलाती हैं । भव = संसार का नाश करनेवाली हैं। अतः “भावना भवनाशिनी” होती है । (विशेष सूचना- लेखक-पंन्यास अरुणविजय महाराज द्वारा अनित्यादि १२ भावना विषयक “शान्त सुधारस” ग्रन्थ पर दिये गए प्रवचनों का स्वयं ने ही लेखन कर लिखी हुई पुस्तक “भावना भवनाशिनी" अवश्य ही पढने योग्य है । जिससे भावनाओं का स्वरूप विशद रूप से जाना जा सकता है । अतः पढने का प्रयत्न करिए।) _____ अध्यात्मसार ग्रन्थ में पू. उपाध्यायजी म. ने ध्यानुशतक की ही बात को दोहरायी
. स्थिरमध्यवसानं यत्तद्ध्यानं चित्तमस्थिरम्। .
भावना चाऽप्यनुपेक्षा चिन्ता वा तत् त्रिधा मतम् ।। स्थिर अध्यवसाय को ध्यान कहा है और अस्थिर को चित्त कहा है। जो भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता के रूप में ३ प्रकार का है । निश्चित ध्येयस्वरूप में रहे हुए आत्मा के ज्ञानादि रूप परिणामवाले स्थिर चित्त को ध्यान कहा है । अनित्यादि भावना है, अनु अर्थात् पश्चात् उत्तरकाल में सेवित की जाय उसे अनुप्रेक्षा, तथा शरीर-धन-विषयादि विषयक विचारणा को चिन्ता कहा है। इनमें रहनेवाला चित्त ध्यान नहीं कहलाता है । कई बार लोग भ्रान्ति-भ्रमणा में ही रह जाते हैं । थोडी क्षण मात्र के लिए चिन्ता में से भावना में प्रवेश कर पाता है और इतने में तो मान लेता है कि मैं ध्यान में पहुँच गया । कई बार इस भ्रान्ति में से बाहर भी नहीं निकल पाता है। चंचलता और स्थिरता का स्वरूप
आपने कभी जलते हुए दीपक की ज्योति देखी ही होगी। उसकी जलती हुई लौ. .. कभी स्थिर होती है और कभी-कभी बहती हवा के कारण उस लौ में भी छोटा-बड़ा
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ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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