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प्रबलता के कारण अथवा अपने स्वभाव के कारण ४ अवस्थाएँ (लक्षण) उत्पन्न होते हैं। १) कंदणया (क्रन्दनता), २) सोयणया (शोचनता), ३) तिप्पणया (तेपनता) और ४) परिदेवणया (परिदेवनता)।
१) ऊँचे स्वर से जोर से रोना-चिल्लाना, आक्रन्दन करना इसे कंदणया (क्रन्दनता) कहते हैं।
२) चिन्ता करना, खिन्न होना, उदास होकर बैठना, खेद करना, उदासीन होकर शोकाकूल बैठना, मूर्छित होना, पागलवत् कार्य करना, दीन भाव से आंखों से आंसू बहाकर रोते रहना-यह सोयणया (शोचनता) है।
३) तिप्पणया-वस्तु विशेष की चिन्ता करके जोर से रोना, बोलकर रोष प्रकट करना, क्रोध करना,व्यर्थ-निरर्थक बातें करना अप्रिय शब्दोच्चार करने को तिप्पणया कहते
. ४) माता-पिता-पुत्र-स्वजन, मित्रादि की मृत्यु होने पर अधिक विलाप करना, रोना, हाथ-पैर पछाडना, हृदयपर प्रहार करना, बाल तोडना, अंग पछाडना, अपशब्दों का, अनर्थकारी शब्दों का उच्चार करना तथा क्लेश एवं दयाजनक भाषा बोलना आदि परिदेवणया ४ था प्रकार है। ये लक्षण हैं। ऐसी आर्तध्यानी की पहचान है। जब जब आर्तध्यान बढता है, तब तब ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार के चिन्ह-लक्षण प्रकट होते हैं। जिन्हें देखने से स्पष्ट ख्याल आता है कि यह जीव आर्तध्यान की धारा में डूबा हुआ है।
रौद्रध्यान का स्वरूप- ,
दुष्ट क्रूराशयो जंतु रौद्रकर्मकरो यतः।
ततो रौद्रं मतं ध्यानं तच्चतुर्धा बुधैः स्मृतम् ।। ८१ ।। ध्यानदीपिकाकार कहते हैं कि... जिन कारणों को लेकर दुष्ट क्रूर आशयवाला जीव रौद्रकर्म करता है उस कारण से उसे रौद्रध्यान कहा है । सामान्य आर्त में से रौद्रस्वरूप धारण कर लेता है । यह भी ४ प्रकार का है
रोद्दे झाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा १) हिंसाणुबंधी २) मोसाणुबंधी, ३) तेणाणुबंधी, ४) संरक्खणाणुबंधी।
ठाणंगसूत्र ४/१/१२ में रौद्रध्यान के ४ भेद बताएँ हैं। १) हिंसानुबंधी, २) मृषानुबंधी, ३) स्तेयानुबंधी, और ४ था संरक्षणानुबंधी । कषाय की तीव्रता तथा लेश्याओं
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
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