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________________ दीपक की ज्वाला की तरह परस्पर मिल जाने के पश्चात् भी.... सभी अपने आप में अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखती ही हैं। क्योंकि सभी आत्माएँ स्वतंत्र हैं । भिन्न-भिन्न हैं। सबका अपना-अपना केवलज्ञानादि अलग अलग है । अस्तित्व स्वतंत्र रखते हुए भी मिलकर एकरूप होकर रहती है । परस्पर दीपक की ज्योति की तरह मिल जाने पर भी सबके अपने-अपने आत्म प्रदेशों का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। इसीलिए सिद्धाचल-सिद्धक्षेत्र की तीर्थभूमि का महत्त्व है । और इस तीर्थक्षेत्र की भूमि की यात्रा-दर्शन-वंदन-पूजन इस भूमि का स्पर्शनादि का भी इतना महत्व इसी कारण हैं। ऐसी भूमियों पर से जहाँ अनन्त आत्माएँ एक ही स्थान पर से ज्यादा से ज्यादा संख्या में मोक्ष में गई हैं। श्री शत्रुजय-पालीताणा की तीर्थभूमि पर इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान पधारे । वे ९९ पूर्व बार यहाँ पधारते रहें । उनके समवसरण श्री शत्रुजय की भूमि पर बने । तथा रायण वृक्ष के नीचे प्रभुजी कायोत्सर्ग करके ध्यान में रहे । उनके स्पर्श से यह भूमि पावन-पवित्र बनी । उनके काल में कितनी आत्माएँ पालीताणा पर से मोक्ष में गई । जिसमें पुंडरीकस्वामी जो प्रभु ऋषभदेव के आद्य-प्रथम गणधर थे, वे चैत्री पूनम के दिन १० करोड मुनि महात्माओं के साथ मोक्ष में गए । कार्तिक शुद् पूनम के दिन १० करोड परिवार मुनिओं के साथ मोक्ष में गए। इस तरह एक मात्र श्री ऋषभदेव भगवान के शासन काल में ही अनेक-अगणित जीव मोक्ष में गए। उनके पश्चात् उसी क्रम में पीछे २३ तीर्थंकर मोक्ष में जाते ही रहे । नेमिनाथ भ० सिर्फ गिरनार पर्वत (उज्जित शैल शिखर) पर मोक्ष में सिधारे, लेकिन उसके सिवाय के २३ तीर्थंकर भगवान श्री शत्रुजय की पावन भूमि पर पधारे। २० तीर्थंकर भ० सम्मेतशिखरजी तीर्थ पर से मोक्ष में पधारे। उनके भी साधु-साध्वियों का परिवार काफी लम्बा चौडा था। इस तरह सिद्धाचल-शत्रुजय और सिद्धक्षेत्र–सम्मेतशिखरजी इन दोनों तीर्थस्थलों से बदलते काल के प्रवाह में एक ही भूमि पर से कितनी आत्माएँ मोक्ष में गई? अगणित आत्माएँ जो मोक्ष में गई हैं, उनमें से एक ही स्थान भूमिपर से जितने मोक्ष में गए हैं वे लोकान्त क्षेत्र में भी एक ही जगह पर कितने एक साथ मिलकर रहेंगे? एक साथ लोकान्त के एक आकाश क्षेत्र में अगणित अनेक सिद्धात्मा रहेगी। विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति" १४२५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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