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आत्मा शरीर से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व धारक द्रव्यरूप में थी तो आज बिना शरीर के भी स्वतंत्र रूप से रहती है । यदि स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं होता तो कैसे रहती? अतः संसारी अवस्था में शरीर में अस्तित्व मानना और सिद्धावस्था में शरीररहित भी स्वतंत्र रूप से अस्तित्व स्वीकारना ही सम्यग्दर्शन है । संसारी अवस्था में शरीररूप नहीं लेकिन शरीराकार अस्तित्व मानना चाहिए । शरीर में रहने पर भी शरीर को ही आत्मा मानना यह महामिथ्यात्व है, नास्तिकता है। शरीर से भिन्न स्वतंत्र अस्तित्व न मानना यह भयंकर नास्तिकता-मिथ्यात्व है। ध्यानी ज्ञानी उच्च कक्षा का साधक अपनी उच्च ध्यानावस्था में शरीर से भिन्न आत्मा की अनुभूति कर सकता है । जिसमें देहभिन्न स्वतंत्रात्मानुभूति हो वही सच्चा-ऊँचा ध्यान है । ज्ञान है।
मोक्ष में एक स्थानपर एक साथ अनेक सिद्धात्मा
इस चित्र में दिखिए. .. जैसे बीच में एक छोटे से बक्से पर सूई लगी हुई है।
और उसके चारों तरफ जीरो के छोटे-छोटे बल्बों की पूरी सिरीज लगा दी जाय,
और सबको चालू करने पर सभी बल्बों का प्रकाश एक सूई के अग्रभाग पर रहता है। जबकि प्रकाश रूप-रंगवाला पौद्गलिक है
और वह भी एक सूई के
नूकीले अग्रभाग पर यदि रह सकता है। तो फिर अरूपी-अवर्णी-निरंजन-निराकार आत्माएँ एक साथ एक ही स्थानविशेष रूप एक आकाश प्रदेश पर क्यों नहीं रह सकती? आसानी से रह सकती हैं । एक लाख वर्ष पहले एक भूमिप्रदेश से एक आत्मा मोक्ष में गई । उसी जमीन पर से ८० हजार वर्ष पहले कोई मोक्ष में गया, उसी स्थान विशेष से ६० हजार, फिर ५० हजार, फिर ४० हजार, फिर ३० हजार, फिर २० हजार, फिर नौं हजार, फिर ७ हजार, फिर ५
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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