SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्ध बनकर मात्र प्रकाशपुंज स्वरूप ही रहती है । यद्यपि प्रकाश भी रूपी है अतःदिखाई देता है। लेकिन आत्मा तो सर्वथा अरूपी ही होती है। इसलिए दिखाई देना या रूप-रंग होना या आकार-प्रकारादि होना यह पुद्गल निमित्तजन्य है । आत्मा के लिए सब प्रकार के भेद-प्रभेद खडे करनेवाला एक मात्र पुद्गल ही है। पौद्गलिक संग ही भेदकारक होता है। अतः पुद्गल संग जब तक सर्वथा दूर नहीं होता है तब तक अभेदता-भेदरहितता नहीं आएगी। .कर्म भी पौद्गलिक है। शरीर भी पुद्गल का पिण्ड है। संसार के समस्त वर्ण-गंध-रस-स्पर्शवाले सभी पदार्थ पौद्गलिक ही हैं। वर्ण-गंधादि सभी पद्दल के ही गुणधर्म हैं । आत्मा पुद्गल रहित है । पुद्गल के वर्णादि गुणधर्मों से युक्त आत्मा नहीं है। इसीलिए दिखाई नहीं देती । अतः आत्मा के रूप-रंग नहीं होता है । आकार-प्रकार नहीं होता है। आत्मा अरूपी-अरंगी-अगंधी-अवर्णी-निरंजन-निराकार रूप होती है। मात्र आपको समझाने के लिए दृष्टान्त के रूप में ही उपमा लेकर समझाया जाता है। ऊपर का चित्र देखिए... इस अवनितल-धरती जो ढाई द्वीप स्वरूप मनुष्य क्षेत्र में जहाँ जहाँ भी जो जो भी साधक जीव ध्यानादि की साधना में लीन होकर बैठे हैं वे सभी सर्व कर्मों का क्षय करके देह छोडकर जब मोक्ष में जाते हैं, तब उनकी आत्मा बैटरी के प्रकाश की तरह सीधी निकल जाती है । देह छोड देने पर फिर देह से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रहता है। अब वह आत्मा १ समय में ही ७ राज लोक का अन्तर काट कर द्रुत गति से लोकान्त तक जाकर बस, वहीं प्रकाश पुंज की तरह स्थिर हो जाती है । अब वहाँ किसी भी प्रकार का पुद्गलादि का संग रहता ही नहीं है। शरीर का भी नहीं। अतः मात्र आत्मा प्रकाश पुंज की तरह रहती है। जैसे टोर्च-बैटरी को छोडकर प्रकाश ऊपर की छत पर रहता है ठीक वैसे ही शरीर को छोडकर आत्मा लोकान्त की छत पर जाकर प्रकाश पुंज की भांति स्थिर हो जाती है। १४२२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy