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सिद्ध से कोई भेद होता ही नहीं है । वहाँ लोकान्त में अब कोई स्त्री नहीं है और कोई पुरुष नहीं है । ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि यह तीर्थंकरसिद्ध है और यह स्त्रीसिद्ध है । नहीं । क्योंकि वहाँ स्त्रीसूचक शरीर ही नहीं है और पुरुषसूचक शरीर भी नहीं है । वहाँ तीर्थंकर के द्योतक प्रातिहार्यादि कुछ भी नहीं है और आचार्य - उपाध्याय आदि सूचक कोई एक भी सूचक- द्योतक निमित्त है ही नहीं । अतः सभी एक समान - एक जैसे ही होते हैं। बात भी सही है कि जब शरीर ही नहीं है तो फिर भेद रहेंगे भी किस आधार पर ? अशरीरी अवस्था में जहाँ एक मात्र आत्मप्रदेशों का प्रकाश पुंज की भांति ही अस्तित्व रहता है वहाँ भेद किस बात का ?
उदाहरण के लिए देखिए .... कुछ अलग कंपनियों की लाल-पीली छोटी-बडी टोर्च लाइटें हो उनमें सबमें भिन्नता स्पष्ट दिखाई देगी। क्योंकि सभी टोर्च लाइटें बैटरियाँ भिन्न-भिन्न रूप, रंग, आकार - प्रकार की है, इसलिए सब में विषमता रहेगी ही । क्योंकि इन सबके अपने अपने रूप-रंग आकार - प्रकार- बनावट आदि सभी भिन्न भिन्न प्रकार की है । अतः भिन्नता - विविधता अनेकता निश्चित ही रहेगी । लेकिन थोडा सा
और ध्यान से देखिए इन सब बैटरियों - टोर्च लाइटों में से निकलता प्रकाश यदि एक पुट्ठे, कपडे या किसी पर भी इकट्ठा किया जाय तो वह प्रकाश सबका एक जैसा समान ही होगा । उसमें कहीं किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं दिखाई देगी। प्रकाश का जो वर्ण है वह सबका एक सरिखा रहेगा । अतः प्रकाशगत समानता जरूर रहेगी । हाँ, यहाँ भी यदि कोई टोर्च लाइटों पर लाल-पीला पारदर्शक पेपर रख देगा तो जरूर प्रकाश भी लाल-पीला हो जाएगा। लेकिन वह भी औपाधिक होगा । नैमित्तिक होगा । तो ही भेद
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होगा ।
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ठीक इसी तरह सिद्ध परमात्मा लोकाग्र में सिद्धशिला पर लोकान्त को लगे हुए मात्र प्रकाश पुंज स्वरूप ही रहते हैं । यहाँ से शरीर छोडकर आत्मा जब चली जाती है तो
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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