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________________ में ग्रूप में यदि सबका संक्षेप से समावेश करना हो तो जिन अजिन, और तीर्थ-अतीर्थ तथा एक—अनेक में सभी भेदों का समावेश हो जाता है । इसी तरह ३ - ३ के समूह : भी समावेश हो जाता है । १) लिंग की दृष्टि से - १) गृहस्थ, २) अन्यलिंगी, और ३) स्वलिंगी ये तीन भेद किये हैं। तथा लिंग शब्द शरीर के अंगविशेष का वाचक बनाकर भी १) स्त्री, २) पुरुष और ३) नपुंसक लिंगवाले देहधारी जीवों का मोक्षगमन भी माना है समस्त संसार में पंचेन्द्रिय मनुष्य जीवों की उत्पत्ति संख्या में स्त्रियों की संख्या ही सबसे ज्यादा बताई जाती है । तीनों काल में स्त्रियाँ ही संख्या में ज्यादा उत्पन्न होती हैं । दीक्षा में भी पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों ने ही दीक्षा ज्यादा ली है। ऐसा मत सोचिए कि .... इस वर्तमान काल में ही स्त्रियों की संख्या ज्यादा है । जी नहीं,... चौबीशों तीर्थकर भगवंतों के चतुर्विध संघ के परिवार में भी देखिए... साधुओं की संख्या से स्त्री साध्वियों की संख्या दुगुनी से भी ज्यादा है। इसी तरह पुरुषों से स्त्रियों की संख्या श्रावकों से श्राविकाओं में काफी ज्यादा बताई है। इतना ही नहीं पुरुष साधु जितने मोक्ष में गए हैं उनसे स्त्री साध्वियों की मोक्ष में जाने की संख्या दुगुनी से भी ज्यादा मिलती है । कल्पसूत्र के आधार पर चौबीश ही तीर्थंकर भगवंतों के मोक्ष में जानेवाले उनके संघ-परिवार के साधुओं की संख्या... जबकि इनकी तुलना में ........ चौबी ही तीर्थंकरों के संघ परिवार की स्त्री साध्वियों की कुल संख्या लगभग है । अब आप ही सोचिए। फिर वही सिद्धान्त बैठाइए । मोक्ष आत्मा का होता है । शरीर का नहीं। शरीर से कोई भी कैसा भी देहधारी हो क्या फरक पडता है ? कुछ भी नहीं । वह चेतनात्मा आध्यात्मिक विकास के सोपान रूप राजमार्ग पर प्रगती करती हुई क्रमशः आगे बढती जाय तो किसी भी प्रकार के लिंगवाला या देहवाला हो कोई फरक नहीं पडता । आत्मा के कर्मों का क्षय होना चाहिए और आत्मगुण- ज्ञानादि प्रगट होने चाहिए, बस । .... I उपरोक्त १५ भेदों में से प्रत्येक सिद्ध होनेवालों में ६-६ भेद घटेंगे। उदा० के लिए भ० महावीर जो सिद्ध हुए हैं वे १) जिन सिद्ध है, २) तीर्थ सिद्ध है, ३) एक सिद्ध है, ४) स्वलिंग सिद्ध है, ५) पुरुषलिंग सिद्ध है । और ६) स्वयंबुद्ध सिद्ध है ही । इसी तरह जैसे मरुदेवी माता के विषय में विचार करिए.... १) अजिन, २) अतीर्थ, ३) एक, ४) गृहस्थ, ५) स्त्रीलिंग, तथा ६) स्वयंबुद्ध सिद्ध है । इस तरह इनमें भी ६ भेद घटित होते हैं । सिद्ध बनने की पूर्वावस्था में किसकी कैसी कक्षा-१ - भूमिका है उसके आधार पर सिद्ध के भेद-प्रकार होते हैं । — अतः इसकी विचारणा यहां प्रस्तुत ही है । विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १४१९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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