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________________ केवलज्ञान पाकर मोक्ष में जाता है । पुरुष देह से जो मोक्ष में जाते हैं वे पुरुष सिद्ध कहलाते है । पुरुषलिंग सिद्ध का अर्थ ही यह है कि.... सिद्ध बनने के पहले जो पुरुष थे वे.. पुरुष शरीर के माध्यम से सिद्ध हुए हैं । अतः उन्हें पुरुषसिद्ध कहते हैं । २३ तीर्थंकर पुरुष देहधारी थे। और १ मल्लीनाथ मात्र स्त्री देहधारी थे । अतःवे स्त्रीलिंगी सिद्ध के भेद की गणना में गिने जाएंगे । गौतमस्वामी, सुधर्मास्वामी, शुभस्वामी, पुंडरीक स्वामी आदि सभी पुरुषदेहधारी थे। अतः वे पुरुषलिंग सिद्ध ही कहलाएंगे। १०) नपुंसकलिंग सिद्ध- संसार में स्त्री, पुरुष और नपुंसक इन प्रकार के तीनों लिंगवाले जीव हैं । अतः जीवों का भिन्न-भिन्न वर्गीकरण वेद की दृष्टि से ३ प्रकार का किया गया है। यहाँ लिंग और वेद ये दोनों भेद अलग-अलग हेतु से किये गए हैं । लिंग मात्र यहाँ गुप्तांग . सूचक है। जबकि वेद काम-वासना की भोगेच्छा सूचक है । पुरुष समागम की इच्छा यह स्त्रीवेद कर्म का कार्य है। स्त्री समागम की तीवेच्छा यह पुरुषवेद कर्म का कार्य है। तथा उभय समागमेच्छा यह नपुंसक वेद कर्म का उदय गिना जाता है। यहाँ इतना स्पष्ट समझिए कि इन तीनों प्रकार के वेद के उदयवाले की मुक्ति संभव नहीं है । क्योंकि यह वेद मोहनीय कर्म जो नौंवे गुणस्थान तक सत्ता में रहता है । अतः नौंवे गुणस्थान पर इस वेद मोहनीय का समूल क्षय नाश होता है। वह भी क्षपक श्रेणीवाले जीव का। उपशमवाले का तो यह कर्म सत्ता में दबा हुआ शान्त पड़ा रहता है । मुक्त तो १४ वे गुणस्थान पर बनना है । जबकि वेद का उदय तो ८ वे गुणस्थान तक ही रहता है । बस, फिर वहाँ सत्ता में से क्षय हो जाने के पश्चात् जब वह जीव मुक्त होता है तब वेद सर्वथा नहीं रहता है लेकिन शरीराकृति सूचक लिंग जरूर रहता है। क्योंकि वह तो शरीर का अंगविशेष है । अतः जन्मजात अंग जो बना हुआ है वह कहाँ जाएगा? इसलिए रहता ही है। नपुंसक २ प्रकार के होते हैं । एक तो जन्मजात नपुंसक होते हैं । उभयांगी जीव जो जन्मजात नपुंसक होते हैं कभी सिद्ध होते ही नहीं हैं । दूसरे प्रकार के कृत्रिम नपुंसक होते हैं । ये कृत्रिम नपुंसक ६ प्रकार के भिन्न-भिन्न बताए हैं- १) वर्धितक, २) चिप्पित, ३) मंत्रोपहत, ४) औषधोपहत, ५) ऋषिशप्त, और ६) देवशप्त । ये ६ प्रकार के सभी नपुंसक कृत्रिम हैं। कारणिक हैं। इन प्रकार के कृत्रिम कारणिक या नैमित्तिक नपुंसकवाले जीव मात्र तथाप्रकार के सूचक हैं । लेकिन ये जन्मजात नपुंसक वेदवाले जो जन्मजात होते हैं विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४१३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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