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________________ 1 की सर्वोपरिता बतानी यह कहाँ तक उचित है ? बस, फिर इसी बात को - स्त्री की मुक्ति नहीं और केवली की भुक्ति (भोजन - आहार) नहीं की बात को बडा भेदक सिद्धान्त बनाकर, इसे ही केन्द्र में रखकर इसके आधार पर, इस पर अवलंबित सभी बातों को इसीके इर्द-गिर्द जमाना यह कितना अनर्थकारी एवं घातक विचार है । स्त्री की मुक्ति और केवली का भोजन करना इन दोनों सिद्धान्तों को मात्र शरीरलक्षी बनाकर छोड़ दिया है । जहाँ शरीर को ही छोडना था उससे ठीक विपरीत ऐसे सम्प्रदायों ने आत्मा को ही छोड़ दी और शरीर को ही केन्द्र में रखकर बैठ गए। फिर कोई चाहे कितनी भी उत्कृष्ट साधना करे लेकिन सिद्धान्त की विपरीतता के कारण कैसे लाभ होगा ? उससे तो शायद और मिथ्यात्व की पुष्टि एवं वृद्धि होगी । अतः स्त्री की मुक्ति नहीं होती और केवली आहार नहीं लेते हैं यह विचारधारा सर्वथा त्याज्य है । I यहाँ सिद्ध बनने के १५ प्रकारों में “ स्त्रीलिंग सिद्ध" का भी एक प्रकार शामिल किया गया है । अर्थात् स्त्री शरीरधारी जीव भी मोक्ष में जाते ही हैं। भूतकाल में अनन्त जीव स्त्री देह से मोक्ष में गए हैं, और भविष्य में भी जाएंगे ही। यह निर्विवाद निःसंदेह सत्य है । मरुदेवा माता भी स्त्री ही थी, और चन्दनबाला तथा मृगावती आदि साध्वियाँ भी शरीर से तो स्त्री ही थी । तीर्थंकरों की माताएँ जो जो भी सभी मोक्ष में गई हैं वे सभी शरीर से तो स्त्रियाँ ही थीं । तथा चौवीसों तीर्थंकरों के संघ में लाखों की संख्या में साध्वीजियाँ जो मोक्ष में गई हैं वे भी सभी शरीर से तो स्त्रियाँ ही थी । एक स्त्री मुक्ति का प्रश्न उडा देने से इन सबका मोक्ष भी उड जाएगा। यह सिद्धों की कितनी गंभीर अवमानना होगी ? आशातना होगी ? इस प्रकार की अवमानना से कितने भारी कर्मों का बंध होगा ? फिर कितनी भव परंपरा बढेगी ? इसका भी विचार करना ही चाहिए। यद्यपि स्त्री मुक्ति और केवली भुक्ति विषयक मीमांसा पहले भी कर चुका हूँ विस्तार भय से पुनरोक्ति नहीं करना चाहता हूँ । कृपया वहाँ से पुनः पढें । १४१२ ८) पुरुषलिंग सिद्ध - जैसे स्त्रीलिंग है । स्त्री शरीर के अंगविशेषले देह को स्त्री कहते हैं। वैसे ही पुरुष लिंगविशेष के कारण उस शरीर को पुरुषलिंगी कहते हैं । आखिर देह रचना जो कर्म के कारण बनी है परन्तु आत्मा दोनों में समान रूप है । अतः पुरुष भी आत्म साधना करके . गुणस्थानों के सोपानों पर क्रमशः चढता हुआ क्षपक श्रेणि का प्रारम्भ करके ध्यान साधना में आगे बढता हुआ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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