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________________ आत्मा के गुण हैं । इनमें से एक भी शरीर का गुण नहीं है । गुणस्थानों पर के सोपानों पर आरूढ आत्मा के गुणों में परिवर्तन होने पर गुणों की पर्याय बदलती ही जाती है । आखिर गुण है किसके? आत्मा के । आत्मा ही नहीं होती तो गुण किसके गिने जाते ? गुणों के रहने का आधार क्या होता? तथा ज्ञान-दर्शनादि गुण कहीं शरीर के तो है नहीं । ज्ञान का व्यवहार अनुभूति सब संसार में है । ये गुण आत्मा के हैं । और गुणस्थान के सोपानों पर के चढाव-उतार की प्रक्रिया में.... सारा परिवर्तन एक मात्र आत्मा में ही होता है। शरीर पर नहीं। शरीर तो मात्र जड़ पुद्गल का साधन मात्र है । आत्मा के लिए संसार में रहने का आश्रयस्थान मात्र है । परन्तु ज्ञानादि शरीर में नहीं होता है, न ही रहता है । एक मात्र आत्मा में ही रहता है । अन्तिम कक्षा के केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् मुक्ति अनिवार्य रूप से होती ही है । केवलज्ञान आत्मा में... सत्ता में पड़ा हुआ मूलभूत गुण है । मात्र जो कर्मावरण से आवृत्त-आच्छादित था वही अब सर्वथा निरावरण होकर पूर्ण रूप से प्रगट हुआ है । और निर्जरादि सब आत्मा में होती है । क्रमशः गुणस्थानों के सोपानों पर चढाव उतार का परिवर्तन मात्र आत्मा में होता है । शरीर में नहीं । अन्त में मुक्ति भी आत्मा की होती है शरीर की कदापि नहीं। अब कर्माधीन अवस्था में वह आत्मा चाहे स्त्री शरीर में रहे या चाहे पुरुष शरीर में रहे या भले ही चाहे वह नपुंसक शरीर में रहे, उसे आत्मसाधना करने में शरीर कहीं भी बीच में बाधक नहीं बनता है । यदि कोई भी संप्रदाय या धर्म इस सिद्धान्त को नहीं मानता है, या विपरीत ही मानता हो तो यह उनकी विपरीत मिथ्या विचारणा है । वे इस शरीर के कारण आत्मस्वरूप में न्यूनता लाते हैं । गुणस्थान जो आत्म साधना है उसमें न्यूनता लाते हैं । उसे विकृत करते हैं । क्या जड पौद्गलिक शरीर के कारण, जो कर्माधीन स्थिति में है उसके आधार पर शाश्वत शुद्ध चेतनात्मा के स्वरूप को विकृत मानना यह क्या मूल सिद्धान्त की खण्डना या अवहेलना नहीं है ? मूल सिद्धान्त का भंग करना क्या जिनाज्ञा भंग नहीं कहलाएगा? चौबीस ही तीर्थंकर भगवन्तों के द्वारा संस्थापित चतुर्विध संघ में से हजारो लाखों की संख्या में जब साध्वीजियाँ मोक्ष में गई ही हैं तो फिर उस सिद्धान्त को न मानने से क्या जिनाज्ञा खंडित करने का दोषारोपण सिर पर नहीं आएगा? जो स्त्री बनी है उस स्त्री का क्या अपराध है ? और पुरुष में ऐसी क्या विशेषता है कि वही मोक्ष में जा सकता है और स्त्री नहीं? धर्माराधना यह आत्मा का विषय है, शरीर का नहीं। तो फिर निरर्थक भेद खडा क्यों करना चाहिए? और फिर उसे संप्रदाय का साम्प्रदायिक राग-द्वेष का रंग देकर... स्वतंत्र रूप से ऊँचा बताने के लिए मात्र उसी मत विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४११
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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