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________________ देता है । फिर तो सवाल ही कहाँ रहता है ? क्षपक श्रेणी में तो ध्यान की तीव्रता के आधार पर कर्मों का क्षय विपुल प्रमाण में करते-करते, नौंवे गुणस्थान पर मोहनीय कर्म की १२ कर्मप्रकृतियाँ विषय कषाय की क्षय करके..१० वे पर सूक्ष्म लोभ भी सत्ता में से क्षय करके सीधे १२ वे गुणस्थान पर वीतरागी और १३ वे पर जाकर केवली-सर्वज्ञ बन जाएगा। बस, केवलज्ञान केवलदर्शनादि आत्मगुणों का सर्वोच्च कक्षा का वैभव प्राप्त हो जाय उसके बाद तो सवाल ही नहीं रहता है । बाह्य वेशभूषा चाहे जो भी रहे क्या फरक पडता है ? क्योंकि आप जानते ही होंगे कल्पसूत्र शास्त्र कहता ही है कि दूसरे अजितनाथ भ० से २३ वे पार्श्वनाथ भ० तक के २२ तीर्थंकर भगवन्तों के काल में साधु-साध्वियों के लिए निश्चित रूप से वेशभूषा का कोई नियम नहीं रहता है । क्योंकि रागद्वेष की मोहगत परिणति में काफी फरक है । तुलना में पाँचवे आरे में आज हमारी इतनी ज्यादा शुद्धि नहीं है । वह चौथा आरा था और यह पाँचवा आरा है । इतना अन्तर है । अतः कालादि नैमित्तिक हेतुओं का भी सहायक प्रभाव रहता है । इस तरह केवली-सर्वज्ञ बना हुआ वह तापस या संन्यासी आयुष्य समाप्त होने पर उसी प्रक्रिया से निर्वाण पाएगा। मोक्ष में जाएगा। इसीलिए अन्यलिंगी सिद्ध की गणना की है। जो बिल्कुल सही सुसंगत लगती है। अन्यलिंगी सिद्ध के दष्टान्त प्रसत्रचन्द्र राजर्षि का नाम तो वैसे भी आपने सुना ही होगा? प्रसिद्ध दृष्टान्त है । भ. महावीर के काल का। उनके भाई वल्कलचीरी थे । उनके माता-पिता ने तापसी दीक्षा ले ली थी। उसके पश्चात् वन–जंगल में उन्होंने एक सन्तान को जन्म दिया था। वह बडा हो रहा था । वन में वल्कल अर्थात् वृक्ष की छाल और चीर अर्थात् वस्त्र (कपडे) । अतः वे वृक्ष की छाल को ही कपडे की तरह पहनकर अपने शरीर पर लपेट लेते थे। इसलिए उनका नाम वल्कलचीरी प्रसिद्ध हो गया था। बड़े होकर एक दिन उन्होंने अपने तापस पिता की तुंबडी (कमण्डल विशेष) को देखा। बस, देखते-देखते चिन्तन की धारा में वल्कलचीरी को जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो गया। इससे उन्हें पूर्वजन्म का सब कुछ स्मरण होने लगा। इस पूर्वजन्म के ज्ञान में उन्हें यह दिखाई दिया कि... अरे ! मैंने पूर्वजन्म में दीक्षा ली थी... चारित्र पाला था । बस, बार-बार उस चारित्र धर्म साधु जीवन का स्मरण करते-करते.. और जातिस्मरण के ज्ञान में जानते और दर्शन में स्पष्ट देखते-देखते उन्हें वैराग्यभाव जागृत हुआ। बस, ऐसा वैराग्य बढ़ने लगा कि... भाव चारित्र की कक्षा में वे मन से विरक्त हो गए.... और बैठ गए ध्यान की धारा में । बाह्य परिवेश से तो वृक्ष १४०८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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