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की छाल को वस्त्र में लपेटे हुए आश्रमवासी तापस थे, लेकिन उस ध्यानानल में आत्मस्वरूप में खोए हुए महात्मा सब कुछ भूल गए। और ध्यान की विशुद्धि में कर्मक्षय होते होते गुणस्थान तो बदलते ही गए। बस, अपूर्वकरण के ७ वे गुणस्थान पर भावचारित्र के साथ साथ आत्मवीर्य की शक्ति बढते - बढते ... क्षपक श्रेणी प्रारम्भ हो गई । बस, फिर तो कर्म के बडे बडे पहाड भी तूट - तूटकर .... परमाणु तुल्य बनकर बिखरते ही गए और थोडी देर में तो वीतरागी बनकर केवली सर्वज्ञ भी बन गए। केवलज्ञानी तो सदा मोक्ष में जाते ही हैं । अतः वे वल्कलचीरी अन्यलिंगी कहलाए ।
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दूसरा इससे भी प्रसिद्ध काफी बडा दृष्टान्त जो प्रायः सभी जानते ही हैं । आद्य गणधर श्री गौतम स्वामी जो अष्टापद तीर्थ पर गए थे । उतरते समय १५०० तापस मिले थे । लंगोटीबद्ध बावाजी जटाधारी थे सभी । भिन्न-भिन्न आसन करते थे सभी और अष्टापदं शैल चढने के लिए। फिर गौतम स्वामी के साथ चले । गौतमस्वामी ने इन १५०० तापसों के सामने समवसरण का, तथा प्रभु वीर का अद्भुत स्वरूप समझाया । बस, इस वर्णन को सुनते-सुनते और आगे बढते - बढते . .... देखते ही ५००, फिर ५००, और फिर ५०० के समूह में सबको (१५०० तापसों) को भी केवल ज्ञान हो गया। वे सभी केवली सर्वज्ञ बनकर समवसरण में जाकर केवली की पर्षदा में बैठे। (इस दृष्टान्त का कथानक पहले भी लिख चुका हूँ अतः विस्तार भय से पुनरोक्ति करना अनावश्यक समझता हूँ ।)
इस तरह अन्यलिंगी तापसों ने भी आध्यात्मिक विकास की उस समानान्तर पटरियों पर अपनी गाडी चलाई और केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गए। इसलिए आत्मधर्म की समान कक्षा को समझकर गुणस्थानों के सोपानों पर चढना चाहिए। जिससे किसी का भी कल्याण-निस्तार संभव होता है। इससे फलितार्थ यह निकलता है कि... मात्र जैन वेषधारी ही मोक्ष के अधिकारी हैं शेष अन्य कोई नहीं। ऐसा नहीं है । परन्तु तापस - संन्यासी - भिक्षु या परिव्राजकादि अन्य धर्मी - अन्य संप्रदायवादी भी आत्मधर्म के गुणस्थानों के सोपानों पर चढकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । सिर्फ इतना जरूर आवश्यक है कि. . भावचारित्र की ऊँची कक्षा में चढे हुए वे जरूर होने चाहिए । परन्तु इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ... परिव्राजकपना या तापसपना, या संन्यासीपना - भिक्षुपना ही सर्वश्रेष्ठ है या वे ही मोक्ष के अधिकारी हैं या उस वेश से मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित है ही । ऐसा नहीं है । या उनकी समस्त समाचारी, आचार संहिता या विचारधारा या उनका धर्म ही मुक्तिदायक साधना के रूप में है। अतः चलो हम भी वैसा करें। जी नहीं । कदापि नहीं । यह सारा बाह्य स्वरूप है । स्वीकार्य और ग्राह्य तो मात्र आभ्यंतर गुणस्थानों के
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विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति "
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