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________________ है या किस संप्रदाय या धर्म का है उससे कोई मतलब नहीं है । जी हाँ, मात्र एक ही बात महत्व रखती है कि... वह कैसा है ? साधक की आंतर-बाह्य भूमिका कैसी है ? व्यक्ति मात्र कौन है यही सोचता रहेगा तो इसमें अहंकार की गंध है । कर्म की उपाधि से आत्मा का सही परिचय नहीं होता है । आत्मा का परिचय तो आत्मा के गणों से ही सही होगा। गुण ही सही पहचान है। इसलिए कौन है के बजाय कैसे हैं का विचार ही सही परिचय देगा । इसलिए हमेशा मैं कौन हूँ के बजाय मैं कैसा हूँ ? यही विचारणा स्व और पर के विषय में करनी चाहिए। संन्यासी या तापस बाह्य वेषभूषा से भले ही कैसा भी हो लेकिन अन्दर में आत्मिक परिणति ऊँची कक्षा की यदि है तो वह आगे बढ़ सकता है । आध्यात्मिक कक्षा में आन्तरिक भूमिका में ध्यान ही सबसे ज्यादा महत्व रखता है। ध्यान आन्तरिक है । उसके लिए तो सिर्फ ज्ञान-दर्शन ही काम के हैं, आधारभूत स्रोत है । जबकि बाह्य वेषभूषा और व्यवहार के लिए आचार-समाचारी प्रधानरूप रहती है । एक जैनाचार्य जिस जन्मजात संस्कारों से रंगे हुए हैं और एक अन्यलिंगी संन्यासी-तापस-भिक्षु आदि जो उस प्रकार के आचार-विचार से सुसंस्कृत नहीं भी हैं फिर भी यदि ध्यान की धारा में क्रमशः आर्त-रौद्रकक्षा के ध्यान को सर्वथा तिलांजली देकर धर्मध्यान से शुक्लध्यान की धारा में... अप्रमत्त भाव से आगे बढ़ते ही जाय तो ध्यान विषयक ऊँचाइयों पर चढने में दोनों में समानता आ सकती है। जैसे अमेरिका या रशिया या भारत में कहीं भी विमान उडेगा तो आकाशगत समानता तो वही आएगी। भले ही दोनों देशों के विमान भिन्न-भिन्न कक्षा के हों। वैसे ही दोनों तीनों देशों के जलचर प्राणी भिन्न-भिन्न हो फिर भी जलगत समानता तो रहेगी। ठीक उसी तरह बाह्य परिवेष भले ही भिन्न-भिन्न हो फिर भी स्वलिंगी और अन्यलिंगी साधु दोनों में ध्यान की उडान भरते समय आधारभूत विषय की समानता आ जाएगी। तथा फलस्वरूप में कर्म की निर्जरा और आत्मगुणों का प्रादुर्भाव भी समान रूप से दोनों में रहेगी। आत्मस्वरूप और साध्यरूप युद्ध परमात्मस्वरूप सब समान रूप से ध्यान से रहेगा। ___ऐसी सुंदर ध्यान की धारा में चढा हुआ अन्यलिंगी तापस यदि अप्रमत्त भाव से आगे बढता हुआ विशुद्धि साधता हुआ कर्मनिर्जरा करता-करता आगे बढ़ता ही जाय तो उसके गणस्थानों में भी क्रमशः परिवर्तन अपने आप होता ही जाएगा । गुणस्थानों का आधार भी वैसे आत्मपरिणति पर ही रहता है । बस, यदि धरातल पर सही दिशा में है तो अन्यलिंगी भी ध्यान की उत्तरोत्तर श्रेष्ठ धारा में आत्मवीर्य से क्षपक श्रेणि भी शुरू कर विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४०७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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