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________________ गुणस्थान के १४ सोपानों के राजमार्ग पर क्रमशः१ ले गुणस्थान से १४ वे गुणस्थान तक क्रमिक सोपान चढने का जो मुख्य राजमार्ग है उस पर कोई भी आत्मा चढकर आगे विकास कर सकती है। संसार की मूलभूत अनन्त आत्माएँ सर्वप्रथम एकमात्र १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर ही होती है। जैसे मूलभूत रूप से मछलियाँ पहले से ही पानी में रहती हैं । ठीक इसी तरह सत्ता की दृष्टि से संसार के अनन्त जीव पहले से ही मिथ्यात्व के गुण पर रहते हैं । अब जो भी जीव अपनी राग-द्वेष की निबिड ग्रन्थि का भेदन करेगा वह ४ थे गुणस्थान पर आएगा। सम्यग् दर्शन पाएगा, सत्य को स्वीकारेगा। ५ वे गुणस्थान पर आकर पापों की को प्रमाण में छोडते हुए कम करते हुए आगे बढेगा। छठे गुणस्थान पर संसार की समस्त पापादि की प्रवृत्ति का आजीवनभर त्याग करने की भीष्म प्रतिज्ञा करके साधु बनेगा। बस, आगे सभी गुणस्थान पर साधु त्यागी-वैरागी ही रहना है । ७ वे पर अप्रमत्त बनकर साधना करेगा। ८ वे से श्रेणी के श्रीगणेश करेगा। नौंवे गुणस्थान पर ध्यान साधना के फलस्वरूप वह स्त्रीपुरुष का भेद भी भूल जाएगा, कषाय की प्रवृत्तियाँ बंध ही जाएगी। धीरे-धीरे वीतराग भाव की दिशा में प्रगति करते हुए १० वे गुणस्थान पर कषाय सर्वथा जडमूल से उच्छेदित हो जाएंगे। बस, १२ वे गुणस्थान पर वीतरागी और १३ वे गुणस्थान पर सर्वज्ञ-सर्वदशी केवली या तीर्थंकरादि बनेगा। घाती कर्मों का क्षय करके आत्मगुणों की अनन्त चतुष्टयी संपूर्ण प्राप्त करेगा। बस, अब केवली बनकर जगत् को देशना देंगे। सर्व जीवों का कल्याण करेंगे। बस, अब तो सिर्फ ... एक ही सोपान चढना अवशिष्ट है । १४ वे गुणस्थान पर पहुँचकर देह का त्याग-योग निरोध कर अयोगी बनकर सदा के लिए देह का एवं संसार का त्याग करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनना है । बस, फिर तो सदा के लिए मोक्ष में अशरीरी-अकर्मी बनकर अनन्त काल तक स्थिर ही रहना है। ऐसा है यह आत्म विकास मार्ग । कहाँ है इसमें सम्प्रदाय या अन्य धर्म के भेद-अभेद की बात? बस, सीधी आत्मा की बात है । इसलिए कोई भी धर्म अपना बाना इसे पहनाकर अपना कह दे । कोई सम्प्रदाय अपना लेबल लगाकर उसे अपने सांप्रदायिक रंग से रंगीन बनाले । फिर धर्म के बाजार में अपनी ब्राण्ड बनाकर बेचे । यह तो चलता ही रहता है। जैन धर्म ने ऊँची कक्षा की उदारता को स्पष्ट करते हुए अन्यलिंगी को भी सिद्ध के १५ प्रकारों में एक प्रकार के रूप में गिना है । यहाँ अन्यलिंगी से कोई भी किसी भी धर्म का या संप्रदाय विशेष का संत हो या महन्त, तापस हो या कोई साधु हो या भिक्षु, वह कौन १४०६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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