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________________ विषय लें चाहे जो भी कोई विषय हो उसके अन्तिम सत्य को स्वीकार करना ही सम्यग् दर्शन कहलाता है। - जैन धर्म के सर्वज्ञ परमात्मा ने अद्भुत अनोखी विशालता-उदारता की बहुत बडी बात करके धर्म या सिद्धान्त का स्वरूप मात्र जैनों के लिए ही नहीं बताया अपितु समस्त जीवों के लिए समान रूप से बताया है । अतः सचमुच तो इसे जैन धर्म कहने मात्र से एक संकुचित सीमित दायरे में समा लेने जैसा है । जबकि इसे “आत्मधर्म" कहने से ही व्यापक विशाल अर्थ होगा। आध्यात्मिक विकास यात्रा" यह आत्मधर्म की बात है । आध्यात्मिक धर्म है । सर्वज्ञ प्रभु ने कहा कि संसार की सभी आत्माएँ समान हैं । एक जैसी ही हैं । कहीं कोई भेद ही नहीं हैं । आत्मस्वरूप से सभी आत्माएँ समानरूप से एक जैसी ही हैं। पर्याय भेद से भेद हैं । द्रव्यस्वरूप से संपूर्ण समानता है । तथा गुण की सत्ता में भी भेद नहीं अभेद है । मात्र गुण की पर्यायें कर्मसहित और कर्मरहित इन दो प्रकार की शुद्धाशुद्ध पर्याय हैं । इसलिए आत्मदृष्टि रखकर श्री सर्वज्ञ परमात्मा ने आत्मधर्म बताया है । और आत्मधर्म के स्वरूप में कहीं सम्प्रदायगत भेद की बात बीच में आती ही नहीं है । सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा शुद्ध धर्म की स्थापना करते हैं । सम्प्रदाय विशेष की स्थापना कभी करते ही नहीं है । यह स्पष्ट ध्यान में रखना चाहिए । इसी तरह सर्वज्ञ भगवान ने मात्र जैनों के लिए ही धर्म की स्थापना की है और अन्य किसी के लिए नहीं की है ऐसी भी बात नहीं है । वे समस्त आत्माओं के लिए समान रूपसे आत्मधर्म की स्थापना करते हैं । जो अनन्तात्माओं के लिए समान रूप से उपकारी होता है। इसी बात को सिद्ध करने का प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रमाण है गुणस्थान क्रमारोह की सिद्धान्त प्रक्रिया ।१ ले गुणस्थान से १४ वे गुणस्थान तक की सारी प्रक्रिया मात्र आत्मा के विषय की ही है । किस आत्मा में कितना-किस प्रकार का परिवर्तन हुआ इत्यादि विषय की स्पष्ट बात है । आत्मा में कितने कर्मों की निर्जरा हुई ? क्षयोपशम हुआ और कितने गुणों का प्रादुर्भाव हुआ? या किन-किन कर्मों का बंध हुआ और उसके कारण किस-किस गुण काआच्छादन हुआइत्यादि सीधी आत्मगुणों के आच्छादन और प्रगटीकरण की विचारणा रखी है । बस, कर्मों के बंधन में पाप-पुण्य की प्रवृत्ति की बात आती है । और कर्मों की निर्जरा में..... संवर में धर्म तत्त्व की बात आती है । अतः आत्मधर्म को साम्प्रदायिक वाडे में बांधना कहाँ तक उचित है? आत्मधर्म को सम्प्रदाय के अधीन बनाकर संप्रदाय का रंग चढाने से राग-द्वेष की बंध ज्यादा बढ़ने लगती है । अतः ऐसा करना यह धर्म के साथ खिलवाड करने जैसा है । शुद्ध धर्म का स्वरूप विकृत करने जैसा है। विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४०५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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