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तो फिर आप प्रश्न करेंगे कि गृहस्थ लिंग सिद्ध का भेद ही क्यों रखा है ? इसके उत्तर में स्पष्ट यही है कि ... गृहस्थाश्रम में रहकर जो उसी वेष में केवलज्ञान पा जाय और अन्तर्मुहूर्त के अत्यन्त अल्प काल में जिसका आयुष्य पूरा हो जाय । द्रव्यतः वेष ग्रहण करने जितना भी अवकाश शेष न रहता हो उनकी गणना इस भेद में होती है ।
५) अन्यलिंगिसिद्ध - यहाँ भी लिंग शब्द प्रथम की भांति चिन्ह वाचक पहचानकारक है । जैसे गृहस्थ का वेश - परिवेश एक पहचान कारक है। वैसे संन्यासी का भगवा वेश, या बावाजी की लंगोटी, या लगाई हुई भभूति - भस्म - तिलकादि उनकी
पहचान के सूचक चिन्ह हैं । इसी अर्थ में लिंग शब्द प्रयुक्त है । यहाँ लिंग शब्द के साथ अन्य शब्द जुडकर अन्यलिंगी शब्द बना है । इसका स्पष्ट अर्थ है कि.... स्वलिंग अर्थात् अपने लिंग से भिन्न । जैन साधु जो जिस श्वेतवस्त्र में सुसज्ज श्वेताम्बरादि है, ठीक इनसे विपरीत जो हिन्दु तापस, संन्यासी आदि भगवा वेश पहने हुए हैं उनको अन्यलिंगी कहते हैं ।
आप शायद प्रश्न करेंगे कि क्या सिर्फ जैन साधु ही मोक्ष में जा सकते हैं ? क्या जैनेतर कोई भी मोक्ष में नहीं जा सकते ? क्या जैन धर्म में ही मोक्ष मार्ग बताया है ? और किसी अन्य धर्म में मोक्षप्राप्ति का मार्ग नहीं बताया है । बडी विचित्र बात तो यह है कि.
. सभी धर्म ऐसा ही कहते हैं कि ... हमारे धर्म से ही मोक्ष मिल सकता है और अन्य किसी भी धर्म से मोक्ष प्राप्त हो ही नहीं सकता है। ऐसा सभी अपने-अपने धर्म में कहते हैं। सभी यहाँ तक कहते हैं कि हमारे धर्म में जन्मे हुए हमारे धर्म को मानने-करनेवाले सम्यक्त्वी हैं और शेष सभी मिथ्यात्वी हैं। लेकिन ये शब्द सर्वज्ञों के नहीं हैं । ये तो -द्वेष प्रेरित सभी के अपने अपने शब्द हैं।
राग
जैन धर्म ने ऐसी संकुचित वृत्ति नहीं रखी। और न ही कभी ऐसा कहा । जैन धर्म सम्यक्त्व का भी सीधा स्पष्ट अर्थ है कि.. चरम सत्य को स्वीकारना । चाहे विषय भगवान को मानने का हो या गुरु को मानने का हो, या धर्म को मानने का हो, या अनन्त संसार की जड - चेतन किसी भी वस्तु को मानने की बात हो उसके चरम सत्य स्वरूप को समझना - स्वीकारना ही सम्यक्त्व है । मिथ्या तो असत्य - गलत है। उससे भी विपरीत स्वरूप को मानने स्वीकारने को कहते हैं। चाहे आत्मा का ही विषय लें या फिर मोक्ष का
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आध्यात्मिक विकास यात्रा