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शास्त्र में ऐसा नियम बताया गया है कि... कोई भी गृहस्थ वेष में केवलज्ञान पा सकता है परन्तु कोई गृहस्थवेष में मोक्ष में नहीं जा सकता। अतः स्पष्ट सिद्धान्त है कि "चारित्र विण नहीं मक्ति रे" बिना चारित्र के मोक्ष की प्राप्ति संभव ही नहीं है । अनन्तकाल में भी बिना चारित्र स्वीकारे कोई कभी भी मोक्ष में नहीं गए, और भविष्य में भी कभी कोई मोक्ष में नहीं जाएगा। अतः चारित्र स्वीकार करना अनिवार्य ही है । जो अन्तःकृत् केवली होते हैं वे केवलज्ञान पाते ही अन्तर्मुहूर्त परिमित काल में आयुष्य पूर्ण होते ही निर्वाण पाकर मोक्ष में चले जाते हैं । मरुदेवी माता का मोक्ष ऐसे ही हुआ। केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् तुरन्त ही आयुष्य समाप्त हो गया और मोक्ष में चले गए। अतः द्रव्य–वेष भी ग्रहण करने का अवसर नहीं रहा । यह अपवाद मात्र है । राजमार्ग को निर्वाण की प्राप्ति के लिए चारित्र की अनिवार्यता बताई जाती है।
यहाँ कोई यदि ऐसी विचारणा करे किं... ठीक है, गृहस्थलिंग से भी मोक्ष की प्राप्ति होती ही है । अतः दीक्षा लेने की आवश्यकता ही नहीं है । जी नहीं । ऐसी विचारधारा रखना अनुचित है । ऐसा सोचिए भी मत । आन्तर मन से वे महापुरुष उत्कृष्ट कक्षा के वैराग्यभाव से युक्त होते हैं । जो आगे-आगे के गुणस्थानों पर चढते हुए आगे बढ़ते हैं तो कैसे बढते हैं ? जैसा कि आपने गुणस्थानों का समस्त स्वरूप समझा ही है.... उसमें सिर्फ ५ वे गुणस्थान पर्यन्त ही गृहस्थ रहता है । और केवलज्ञान की प्राप्ति तो १३ वे गुणस्थान पर होती है । तो फिर ५ वे गुणस्थान पर गृहस्थाश्रमी अवस्था में केवलज्ञान कैसे प्राप्त होगा? जी हाँ, वे७ वे गुणस्थान की भाव चारित्र की अप्रमत्त कक्षा को पा चुके हैं । निमित्त पाकर वे ध्यान की धारा पर चढ गए। और श्रेणी लगते ही चढ गए ऊपर । बस, द्रव्यवेष परिधान करने के लिए ध्यान को खंडित करके बीच में कहाँ वापिस नीचे उतरे? इसलिए आभ्यंतर भाव की धारा से वे श्रेणी पर आगे बढ़ते ही जाते हैं और केवलज्ञान पाकर मोक्ष में चले जाते हैं । अब जब आगे के गुणस्थानों पर चढना है, आगे ही आगे बढते जाना हो तो फिर आभ्यन्तर कक्षा का भाव कितना ऊँची कक्षा का रखना होगा? अतः चारित्र की आवश्यकता ही नहीं ऐसा कहनेवालों को थोडा और गौर से सोचना ही चाहिए। बिना ऊंची कक्षा के आभ्यन्तर चारित्र के कोई भी आगे बढ ही नहीं सकता है । और केवलज्ञान पा लेने के पश्चात् भी क्या कोई चारित्र नहीं स्वीकारने की बात करेंगे? यह सोचना ही नहीं चाहिए। ऐसा संभव ही नहीं है। इसलिए ऐसा विचार करना भी उचित नहीं है कि गृहस्थाश्रम में ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है तो फिर निरर्थक दीक्षा लेने से क्या फायदा?....जी नहीं।
विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति"
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