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________________ १४ प्रश्न- कहं णं भंते ! निरंधणयाए अकम्मस्स गती ? उत्तर - गोयमा ! से जहानामए धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्डुं वीससाए निव्वाघाएणं गती पवत्तत्ति, एवं खलु गोयमा ! १५ प्रश्न- कहं णं भंते पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पंनत्ता ? उत्तर - गोयमा ! से जहानामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही निव्वाघाएणं गती पवत्तइ, एवं खलु गोयमा ! पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायते, एवं खलु गोयमा ! नीसंगयाए, निरंगणयाए, जाव पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नत्ता । - आद्य गणधर श्री गौतमस्वामीजी सर्वज्ञ श्री वीर प्रभु ने प्रश्न करे छे- हे भगवन् ! क्या कर्मरहित जीव की गति स्वीकारनी चाहिए ? प्रभु फरमाते हैं... हाँ गौतम ! स्वीकारनी चाहिए । प्रश्न – हे भगवन् ! कर्मरहित जीवों की गति कैसे स्वीकारे ? उत्तर में प्रभु ने कहा . हे गौतम! ... निःसंगपने से, गति के परिणाम से, बंध (कर्मबंध) के विच्छेद होने से, निरिंधन होने के कारण-कर्मरूप इंधन से सर्वथा मुक्त होने के कारण, तथा पूर्वप्रयोग के कारण कर्मरहित जीव की गंति होती है । यह कैसे स्वीकारनी ? इसके स्पष्टीकरण में प्रभु स्पष्ट कहते हैं कि जैसे कोई पुरुष बिनाछिद्र का अखंड ऐसे सूतुंबडे को क्रमपूर्वक अत्यन्तं संस्कार करके और कुश से लपेट दें। और फिर मिट्टि के आठ स्तरों का लेप करे, अर्थात् मिट्टी के ८ स्तर चढाए । लेपन करके उसे धूप में सुखा दें। खूब सूखने के बाद उसे गहरे पानी में डाले । हे गौतम !... मिट्टी के भार से भारी बना हुआ तुंबा पानी के नीचे के तल भाग में जाकर बैठ जाएगा । पानी के कारण भीग कर पुनः उस मिट्टि के एक-एक स्तर पानी में घुलते जाएंगे। जैसे ही सारी मिट्टि निकल जाएगी कि वह तुंबा वजन विहीन अवस्था में सीधा पानी की ऊपरी सतह पर आ जाएगा। हे गौतम! ठीक इस दृष्टान्त की तरह भी निःसंगपने, नीरागपने एवं गति के परिणाम विशेष से कर्मरहित हुआ जीव... सीधा ऊपर गमन करता है । ऊर्ध्व गति में जाता है । विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १३९१ C
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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