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हो चुके हैं वे सिद्ध जीव । दोनों कर्मरहितावस्था में समान रूप हैं लेकिन दूसरे प्रकार के जो सिद्ध बनकर लोकाग्र में स्थिर बन चुके हैं, उनमें गति की संभावना ही नहीं है । वे सर्वथा अशरीरी हैं, अतः गति आदि करने का कोई प्रश्न ही नहीं है । अब रही बात प्रथम प्रकार के जीव जो कर्मबंधन से मुक्त होते ही उर्ध्व गति करके लोकाग्र तक ऊपर पहुँचते हैं। उनकी उर्ध्वगमन रूप गति यह जीव की सहज स्वाभाविक गति है। फिर भी “पूर्वप्रयोगात्” शब्द से तत्त्वार्थकार ने निर्देश किया है। साथ ही “बन्धविच्छेदात्”, "तथागतिपरिणामाच्च” विशेषण जोडकर और स्पष्ट किया है। लेकिन इस निर्देश में कर्मप्रेरित गति की तरफ इशारा जरूर किया है । पंचमांग श्री भगवती सूत्र के सप्तम शतक के प्रथम उद्देश्य में स्वयं सर्वज्ञ परमात्मा स्पष्ट फरमाते हैं कि...
१० प्रश्न- अत्थिणं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति? उत्तर-हंता, अत्थि। ११ प्रश्न- अत्थिणं भंते ! अकम्मस्स गती पन्नायति?
उत्तर- गोयमा! निस्संगयाए, निरंगयाए, गतिपरिणामेणं, बंधणछेयणयाए, निरिंधणयाए, पुवप्पओगेणं अकम्मस्स गती पन्नायति ।
१२ प्रश्न- कहं णं भंते ! निस्संगयाए निरंगणयाए, गइपरिणामेणं अकम्मस्स गती पत्रायति?
... उत्तर-गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तुंबं निच्छिडुं निरुवहयं आणुपुव्वीए परिकम्मेमाणे परिकम्मेमाणे दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ,वेढेत्ता अट्ठहिं मट्टियालेवेहि लिंपइ, लिंपित्ता उण्हे दलयति, भूतिं भूतिं सुक्कं समाणं अत्थाहमतारमपेरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा । से णूणं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवाणं गुरुयत्ताए, भारियत्ताए, गुरुसंभारियत्ताए सलिलतलमतिवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ? हंता, भवइ । अहे • णं से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवाणं परिक्खएणं धरणितलमतिवइत्ता उप्पिं सलिलतलपइट्ठाणे भवइ? हंता, भवइ । एवं खलु गोयमा ! निस्संगयाए, निरंगणयाए, गइपरिणामेणं अकम्मस्स गती पन्नायति ।
१३ प्रश्न- कहं णं भंते ! बंधणछेदणयाए अकम्मस्स गई पन्नत्ता?
उत्तर- गोयमा ! से जहानामए कलसिंबलिया इ वा, मुग्गसिंबलिया इ वा, माससिंबलियाइवा, सिंबलिसिंबलिया इवा, एरंडमिंजियाइवा उण्हे दिना सुक्का समाणी फुडित्ता णं एगंतमंतं गच्छइ, एवं खलु गोयमा !
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आध्यात्मिक विकास यात्रा