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________________ 1 I जीव दो प्रकार के हैं । “जीवा मुत्ता - संसारिणो य” मुक्त और संसारी । मुक्त-सिद्ध बने हुए सिद्धात्माओं की तो कभी भी कदापि कोई गति होती ही नहीं है । वे अनन्त काल में भी एक आकाश-प्रदेश से समीपवर्ती दूसरे आकाशप्रदेश पर भी गति - गमन करते ही नहीं है । अतः सर्वथा निष्क्रिय - अगतिशील अर्थात् गति के अभाववाले हैं । गति - गमन आदि जो भी क्रिया करनी है वह संसारी जीव को ही करनी है । अतः गति करनेवाली आत्मा सक्रिय है । गति की क्रिया करनेवाली है । I अब संसारी में २ प्रकार बताए हैं। एक तो कर्म बंधनवाले हमारे जैसे जीव और दूसरे सर्वकर्मक्षय कर चुके हैं ऐसे कर्मबंधनरहित जो जीव ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष में जा रहे हैं वे जीव । जो कि अभी कर्मबंधन से मुक्त होकर - छुटकारा पाकर मोक्ष में- लोकाग्र भाग में जा रहे हैं ऐसे जीव इन दोनों की गति होती है। कर्म के भार से दबा हुआ जीव अधोगति में ज्यादा गति करता है । चलते चक्राकार ८४ लक्ष जीव योनियों में जन्मादि धारण करते हुए जीव-कर्म भार के संयोगवश संसार चक्र की चारों गतियों में गति करता है । अतः स्वस्तिक में चारों दिशाओं में गति का सूचन निर्देशन किया है । इसीलिए नरक - तिर्यंच आदि चारों को नाम से सूचित किया है। क्योंकि जीव कर्मसंयोगवश गति करके इन चारों में जाता है। जीव स्वभाव से ही गतिशील है । परन्तु यह गति कर्मजन्य है, कर्मप्रेरित है । जब कर्म नहीं रहेंगे तब जीव में गति भी नहीं रहेगी। यह भी बात निश्चित ही है । कर्मरहित अवस्था में जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्वगामी है । अतः जीव ऊपर जाने के स्वभाववाला है । परन्तु कर्म अपने भार से दबाकर नीचे ले जाता है। जैसे लकडा पानी पर तैरने के स्वभाववाला है । धुंआ हल्का होकर ऊपर उठने के स्वभाववाला है । परन्तु कृत्रिम प्रयोग द्वारा उसे नीचे भी गति कराई जा सकती है। पुद्गल द्रव्य का अधोगामी स्वभाव है, अतः वह नीचे गति करता है। कर्म का बंधन पुद्गल को सर्वथा नहीं है । अतः पुद्गल की सहज - स्वाभाविक गति उर्ध्वगति है । ठीक इससे विपरीत जीव की स्वाभाविक गति ऊर्ध्वगति है । और कर्मबंधन प्रेरित अधोगती है। अतः पुद्गल की एक ही गति है जबकि जीव के लिए २ गतियाँ हैं । कर्मजन्य (कर्मप्रेरित) और कर्मरहित जीव की स्वाभाविक गति । 1 कर्मरहित अवस्था में भी दो भेद हैं। एक तो कर्म के अनादिकालीन बंधन में से मुक्त होकर मोक्ष में लोकान्त तक जाते हुए जीव और दूसरे लोकाग्र भाग में पहुँचकर स्थिर विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १३८९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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