SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुनः गौतम इसी बात को दोहराते हैं- हे भगवन् ! बंधन का छेद होने पर जीव की गति कैसे स्वीकारनी ? पुनः समाधान करते हुए प्रभु फरमाते हैं कि... हे गौतम ! जैसे मटर की शींग, मूंग और उडद की शींग, सिंबली (शेमला) की शींग और एरंड फल को धूप में रखें और वे अच्छी तरह खूब सूख जाय तब उसकी शींग फूट जाती है। खुल जाती है और उसमें से बीज अपने आप ऊपर आ जाता है । एरण्ड फल अपने आप ऊपर उछल जाता है । ठीक इसी तरह हे गौतम! बंध का विच्छेद हो जाने से कर्मरहित जीव की गति स्वीकारी जाती है । हे भगवन् ! निरिंधन (कर्मरूपी इंधन से रहित) होने पर जीव की ऊर्ध्व गति कैसे स्वीकारनी ? है गौतम ! जैसे किसी किसी काष्ठ के जलने के समय जलकर काष्ठ की भस्म नीचे गिर जाती है और धुंआ ऊपर उठता है । यह प्रतिबन्धरहित सीधी ऊर्ध्वगति करता है । वैसे ही आत्मा के प्रदेशों पर लगे कर्मरूपी इंधन के निर्जरा की प्रक्रिया में जलकर भस्म हो जाने के पश्चात् निरिंधन अर्थात् कर्मरहित अवस्था में आत्मा सीधी ऊर्ध्व दिशा में गति करती है । पुनः प्रश्न में गौतम पूछते हैं - हे भगवन् ! पूर्वप्रयोग से भी जीव की ऊर्ध्व गति कैसे स्वीकारें ? प्रभु ने फरमाया... हे गौतम! जैसे धनुष्य की त्रिज्या को जोर से खींचकर छोडने पर (यह पूर्व प्रयोग) उस पर का तीर (बाण) जैसे लक्ष्य की दिशा में काफी लम्बे अन्तर तक़ गति करता ही जाता है । ठीक उसी तरह से पूर्व प्रयोग से भी जीव की गति (ऊर्ध्व) स्वीकारी जाती है । इस तरह हे गौतम! निःसंगता से, नीरागता से, निरिंधनता से बन्धविच्छेद तथा पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की भी ऊर्ध्वगति स्वीकारी जाती है । इसी बात को पू. वाचक मुख्य उमास्वातिजी महाराज ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के १० वे अध्याय के ७ वे सूत्र - “पूर्वप्रयोगादसंगत्वात् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः ॥ १०/७ ।।” से स्पष्ट की है । ये सूत्रकार हैं अतः अत्यन्त संक्षेप में... सूत्रों से निर्देश किया है । विषय वही है । प्रत्येक हेतु को चित्र एवं विस्तार से स्पष्ट किया है । इस तरह कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त होनेवाला कर्मरहित अकर्मी जीव शीघ्र ही ऊर्ध्व गति के ऊपर लोकान्त या लोकाग्र तक जाकर अधर्मास्तिकाय की सहायता से स्थिरता धारण कर लेता है । स्थिति स्थापकता में आ जाता है । अर्थात् सदा के लिए स्थिर बन जाता है । अब पुनः कभी गति करने का सवाल ही नहीं खडा होता । यद्यपि अन्तिम लोकान्त 1 १३९२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy