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________________ अलोक में गमन क्यों नहीं? जब आत्मा देह और कर्म के बंधन से सर्वथा छूट जाती है तब एक ही समय में सीधे लोकान्त तक पहुँच जाती है । यदि १ समय में इतनी लम्बी सात राजलोक के असंख्य योजनों का अन्तर काटकर आत्मा जा सकती है तो फिर आगे अलोक में क्यों नहीं जाती है ? १ समय में असंख्य योजन... जा सकती है इतनी तीव्र गति की हम बुद्धि से कल्पना तक नहीं कर सकते हैं, हमारे लिये तो सोचना भी असंभव है। फिर भी मन में यह प्रश्न जरूर उपस्थित हो सकता है कि... इतनी तीव्र गति से चलनेवाली आत्मा के लिए बीच में ऐसा क्या अवरोधक तत्त्व आया? कौन बीच में बाधक बना? यह गति किसने रोकी ? आखिर क्यों रोकी ? लोक और अलोक के बीच में कोई दिवाल बनी हुई है ? आखिर क्या है ? अरे ! यदि दिवाल बनी हुई भी होती तो क्या वह आत्मा के लिए बाधक-अवरोधक बनती ? अरे ! तिळु लोक के मनुष्य क्षेत्र में से ऊपर आने में, बीच के ७ राज लोक में... कितनी पृथ्वियाँ आती है ? इतनी सब पृथ्वियों को भेद-छेदकर आत्मा ऊपर जाती है । इतनी अनन्त-अचिन्त्य असीम उसकी गति है । तो फिर लोकान्त क्षेत्र में जाकर क्यों रुकी ? लोकान्त से भी आगे अलोक अनन्त है । जिस का कहीं अन्त ही नहीं है वह अनन्त ही है । ऐसा अनन्त अलोकाकाश, जो असीम है, वहाँ कोई सीमा ही नहीं है। कहीं कोई अन्त ही नहीं आता है । दूसरी तरफ अलोक में भी आकाश द्रव्य तो है ही । जो और जैसा आकाशास्तिकाय द्रव्य लोक क्षेत्र में है ठीक वही और वैसा ही आकाश द्रव्य अलोक में भी फैला हुआ है । यहाँ लोक क्षेत्र में भी आकाश प्रदेशों की रचना सुव्यवस्थित है । ठीक उसी तरह अलोक में भी आकाश द्रव्य के प्रदेश फैले हुए हैं। अतः जैसी गति लोक क्षेत्र के आकाश प्रदेशों पर होती है वैसी ही गति अलोक क्षेत्र के आकाश प्रदेशों पर भी हो सकती थी। याद रखिए, किसी भी द्रव्य, जीव या अजीव परमाणु जो भी गति करनेवाले द्रव्य हैं वे बरोबर आकाश प्रदेशों पर ही गति करते हैं। जैसे एक ट्रेन (बैलगाडी) अपनी पटरी पर ही गति करती है, ठीक उसी तरह विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १३७७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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