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खाली हो जाता है, अतः रिक्तस्थान की पूर्ति हेतु ऊपर से धुंआ भी नीचे आ जाता है । और दूसरी चिमनी से ऊपर चला जाता है।
आत्मा भी कर्मों के संग से, बन्धन विशेष से नीचे-अधोगति में तथा तिर्यग् गति में भी गमन करती है । लेकिन जैसे ही कर्म का संग(संबंध, बन्धन) टला कि तुरन्त आत्मा अपने स्वभावानुसार सीधी ऊर्ध्वगमन करती है। एरण्ड बीज का दृष्टान्त
कई किस्म के पौधों में एरण्ड का भी एक पौधा आता है । इस पौधे पर एरण्ड का फल जब
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पक जाता है । तब उस फल का ऊपरी हिस्सा
हसूख जाता है । ऊपरी प्रतर जब फट जाता है तब REPOES उस फल के दो भाग हो जाते हैं। ऐसे समय में
उसमें रहा हुआ बीज उछल कर ऊपर आता है । जब तक उस फल की प्रतर सूखकर फट न जाय तब तक बीज उस प्रतर के नीचे ही दबा रहता
है । ज्यों ही प्रतर के दो भाग होते हैं कि तुरंत बीज ऊपर उछलता है । ठीक इसी तरह आत्मा भी कर्म के आवरण के नीचे दबी है । बस, उस आवरण के हटते ही आत्मा तुरंत ऊर्ध्वगमन करती है । एरण्ड बीज तो सिर्फ थोडासा उछलकर रह जाएगा। लेकिन आत्मा जब उछलती है, ऊपर उठती है तब...देह से, कर्म संग के बंधन से मुक्त होकर सीधी ऊर्ध्वगमन करके लोकान्त तक पहुँचती है। “असंगत्वात्" इस विशेषण में जो कर्म के संग-संबंध का असंग अर्थात् अभाव हो जाना है। संग के साथ अ'अक्षर निषेध अर्थ में लगा है। दूसरे विशेषण में जो बन्धविच्छेदात्" शब्दप्रयोग है, इसमें भी बन्ध किसका है ? कर्म का है। बस, उसका विच्छेद अर्थात् नाश, छूटना, अलग हो जाना यही अर्थ है । कर्म के बन्धन के छूट जाने से, नष्ट हो जाने से आत्मा उर्ध्वगमन करती है । “तथागतिपरिणामात्" विशेषण देने का प्रयोजन स्पष्ट है कि... तथाप्रकार की ऊर्ध्वगति करने का ही आत्मा का परिणाम अर्थात् स्वभाव होने से आत्मा ऊपर-ऊर्ध्वगमन करती है। अनन्त काल के बाद आत्मा को आज प्रथम बार अपने स्वभावानुसार, गुणानुसार वर्तन-प्रवृत्ति-गति करने का मौका मिला है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा