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है कि आत्मा पर लगे हुए कर्म ही इसमें कारणभूत हैं। जैसे लकडा (काष्ठ) पानी पर तैरने के ही स्वभाववाला है फिर भी उसपर यदि मिट्टी का लेप कर दिया जाय तो वह पानी में डूब जाता है। ठीक उसी तरह कर्म जो कार्मण वर्गणा रूप जड पुद्गल परमाणु है उसका बना हुआ पिण्डरूप कर्म जिसने आत्मा पर भार बढा दिया जिसके परिणाम स्वरूप आत्मा को ऊर्ध्व, अधो, तिर्यग् दिशाओं में भी गमन करना पडता है। जैसे धुंआ ऊपर उठने के स्वभाववाला ही है। क्यों कि उसमें के भार-वजन कारक घटक द्रव्य वहीं जलकर भस्म बनकर नीचे गिर चुके हैं। अतः वजन विहीन अवस्था में वह धुंआ ऊपर उठता है। ऊर्ध्वगमन करने का उसका स्वभाव है। फिर भी मोमबत्ती के प्रयोगविशेष से उसको पुनः नीचे लाया जा सकता है। आता भी है । लेकिन यह कृत्रिम है। वास्तव में ऊर्ध्वगमन ही उसका मूलभूत स्वभाव है। ठीक ऐसी ही हालत आत्मा की है।
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एक लकडे के बक्से में दो छेद कर चिमनी लगाकर जलती अगरबत्ती एक चिमनी पर रखने से ऊपर जाने के स्वभाववाला धुंआ भी नीचे गमन करेगा। बक्से की पहली चिमनी से होता हुआ नीचे आएगा। क्योंकि अन्दर मोमबत्ती जल रही है। वह अपने जलने के लिए चारों तरफ से वायु मण्डल से हवा खींचती है। वहाँ का आकाश प्रदेश
विकास का अन्त सिक्वकी प्राप्ति