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________________ कारण चाक घूमता जाता है और घडे को आकार देता जाता है। ऐसे में वह बीच में ही घुमाना छोड़ देता है । फिर भी चाक अपनी घूटी पर घूमता ही रहता है । उसे स्थिर होने में देरी लगेगी। लेकिन कोई प्रेरक या कारक कोई भी न होने पर भी चाक स्थिर न होने तक घूमता रहेगा । तीसरा प्रयोग तीर-धनुष्य का है । कोई व्यक्ति खींचतानकर... धनुष्य पर से बाण छोड दे तो वह तीर आकाश में काफी लम्बे तक जाता है । लेकिन आकाश में अब तो कोई गति करानेवाला है ही नहीं । तीर छोडनेवाले ने तो दोरी खींचकर छोड़ दी । उसके पश्चात् आकाश में अब कोई प्रेरक - कारण नहीं है। फिर भी आकाश में १ माइल तक भी तीर गति करता है । पर ... ये पूर्व प्रयोग के दृष्टान्त हैं। इन प्रयोगों में पहले (पूर्व) जो शक्ति लग गई उसीसे आगे अर्थात् बाद में भी गति की क्रिया चलती रहती है। ठीक उसी तरह आत्मा के विषय में भी समझना चाहिए। पहले जब आत्मा देहधारी अवस्था में थी और उस समय जिस प्रकार तीनों योगों की जो क्रिया चलती थी, उसमें अचानक योगों की क्रिया बन्द हो जाने भी अर्थात् योगनिरोध - शैलेशीकरण - अयोगी अवस्था के हो जाने पर देह त्याग के बाद भी मोक्ष में जाने तक की सारी क्रिया होती ही रहती है । पूर्व योग के प्रयोग के संस्कारों से जीव ऊर्ध्व गति करता है । इस प्रकार की ऊर्ध्व गति में गमन करने से जीव लोकान्त (लोकाग्र) प्रदेश में पहुँचता है । जैसे भ्रमणशील पंखा या कुम्हार का चाक स्थिर होने की दिशा में ही है । उसकी गति मन्द - मन्दतर होती ही जा रही है, अतः अन्त में स्थिर हो ही जानेवाली है । ठीक इसी तरह आत्मा की भी गती ऊर्ध्वगमन होकर लोकान्त या लोकाग्रभाग में स्थिर हो ही जानेवाली है । जहाँ यह स्थिरता आए, बस, वही मोक्ष है । इस तरह पूर्वप्रयोग शब्द का प्रयोग करके सूत्रकार ने पूर्वयोगों की सहायता के प्रयोग से ऊर्ध्वगति-गमन की प्रक्रिया सूचित की है । T I दूसरे प्रश्न के उत्तर में " असंगत्वात् बन्धविच्छेदात् ” इन दो विशेषणों का शब्दप्रयोग सूत्रकार महर्षी ने किया है। आत्मा का यदि ऊर्ध्वगति में गमन करने का स्वभाव है तो फिर वह तिर्यग् गमन, तथा अधोगमन क्यों करती है ? इसके समाधान में स्पष्ट उत्तर यही १३७४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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