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________________ आत्मा भी आकाश प्रदेशों पर ही गति करती है। आकाश प्रदेशों की जाल इतनी सुव्यवस्थित बिछी हुई है, कि समस्त लोकक्षेत्र में कोई भी द्रव्य बरोबर गति कर सकते हैं। ठीक इसी तरह ये ही आकाश द्रव्य - अलोक में भी बिछे हुए हैं। तो फिर गति अलोक में क्यों नहीं होती ? I I मान लो कि यदि आत्मा अलोक में जाती तो कहाँ जाती ? अलोक अनन्त है उसका कहीं अन्त ही नहीं है, तो आत्मा कहाँ पर रुकती ? कहाँ स्थिर होती ? कहाँ ठहरती ? अनन्त अलोक में कहीं कोई स्थान विशेष रुकने योग्य है ही नहीं ? तो क्या अनन्त में विलीन हो जाती ? अदृश्य हो जाती ? या क्या होता ? लेकिन् अर्हत् दर्शन का सिद्धान्त स्पष्ट कहता है कि ... आत्मद्रव्य शाश्वत है । अनादि - अनन्त है । कभी भी नष्ट होता ह नहीं है। यदि नष्ट होता होता तो अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करने के समय ही नष्ट हो जाता । या कहीं विलीन होने जैसी कोई बात होती तो संसार में कब की विलीन हो चुकी होती ? क्यों अलोक में आकर विलीन होती ? अलोक में आत्मा को विलीन करनेवाला ऐसा कौन सा घटक द्रव्य है ? अलोक में एक मात्र आकाश के सिवाय अन्य किसी भी द्रव्य का अस्तित्व है ही नहीं। तीनों काल में कभी भी नहीं रहता है । तो फिर आत्मद्रव्य को विलीन कौन करेगा ? आकाश सक्रिय द्रव्य है ही नहीं । इसलिए आकाश किसी के लिए कुछ भी कर नहीं सकता है। आकाश आधेय द्रव्य है ही नहीं । इसलिए आकाश किसी के लिए कुछ भी कर नहीं सकता है । आकाश आधार द्रव्य है । शेष सभी आधेयभूत द्रव्य हैं । अतः आकाश सर्वथा निष्क्रिय द्रव्य है । यह कुछ भी नहीं करता है । लोक क्षेत्र में भी जो आकाशास्तिकाय द्रव्य है, उसने अनन्त काल में कभी भी किसी का कुछ किया ही नहीं, और किसी ने भी कभी भी आकाश की कारण शक्ति का अनुभव नहीं किया है। न ही किसी केवली ने या न ही किसी तीर्थंकर परमात्मा ने या न ही सिद्ध भगवान । जब कारक शक्ति आकाश द्रव्य में है ही नहीं तो फिर किसी के अनुभव का सवाल ही नहीं खड़ा होता है । 1 ने अतः आत्मा का अलोक में गमन क्यों नहीं होता है ? इस प्रश्न का उत्तर आपने यदि पुस्तक के प्रारम्भ में लिखा हुआ पंचास्तिकाय का स्वरूप पढकर अच्छी तरह समझ लिया होता तो इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने में आप बहुत जल्दी सफल होते । सीधी बात यह है कि... धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक इस द्रव्यों का अस्तित्व अलोक में सर्वथा है ही नहीं । ये एक मात्र लोकक्षेत्र में ही है । इन पंचास्तिकाय द्रव्यों की शाश्वत 1 १३७८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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