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सहज स्वाभाविक स्वभाव ऊर्ध्व दिशा में ऊर्ध्वगमन करने का ही है । मात्र कर्मबंधन छूटने की ही देरी है । कर्मबंधन का आवरण टलते ही आत्मा ऊर्ध्वगमन कर जाती है ।
ऊर्ध्वगति क्यों और कैसे होती है ?
पूर्वप्रयोगाद् असंगत्वात् बन्धविच्छेदात् तथा गतिपरिणामाच्च तद्गतिः ॥ १०-६ ॥ तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वातिजी म. ने इस सूत्र में ऊर्ध्वगति के ४ प्रमुख कारण बताए हैं । १) पूर्व प्रयोग से, २) असंग से, ३) बंध के विच्छेद से, ४) तथा गति के परिणाम से ये चार मुख्य कारण बताए हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि... १) सब कर्मों का क्षय होने से आत्मा की गति ऊर्ध्व ही क्यों होती है ? तिछ या अधो क्यों नहीं होती है ? २) संसारी आत्मा की गति तिर्छौं, अधो, ऊँची तीनों प्रकार की होती है तो फिर मुक्त होनेवाली आत्मा की सिर्फ ऊर्ध्व ही क्यों ? ३) गति में योग यदि सहायक हो तो फिर योगों के अभाव में भी गति क्यों होती है ? इन तीनों प्रकार के प्रश्नों का समाधान करने के लिए तत्त्वार्थकार महर्षी ने सूत्र में ४ विशिष्ट विशेषणों का समावेश करके उत्तर दिया है । अतः क्रम से एक एक समझने से स्पष्टीकरण होगा ।
मुक्त बननेवाली आत्मा ने यहाँ पर ही योग-निरोध, शैलेशीकरणादि करके समस्त कर्मों का क्षय कर ही दिया है, अतः वह आत्मा यहीं मुक्त हो चुकी है। कर्म के बंधन से मुक्ति यही सही मुक्ति है । वह तो यहाँ पर ही हो चुकी है। जीव को क्षेत्र का बंधन तो है ही नहीं । सिद्धशिला के ऊपर, लोकान्त के अन्तिम किनारे तक जीव ने सूक्ष्मावस्था में एकेन्द्रिय के भवों में वहाँ भी जन्म-मरण कर लिए। वह सूक्ष्म पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा साधारण वनस्पति के भवों में सिद्धशिला पर भी जाकर आया । वहाँ भी जाकर आया । अरे ! सिद्धशिला ही एकेन्द्रिय पृथ्वीकार के जीवों की ही बनी हुई है। आज भी और सदाकाल सिद्धशिला के ऊपर - लोकान्त तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय नाम कर्म के उदयवाले-सूक्ष्मपने के उदयवाले पृथ्वी - पानी - अग्नि - वायु- साधारण वनस्पतिकाय के अनन्त जीव वहाँ हैं । मौजूद हैं। उनका अस्तित्व वहाँ हैं । वे वहाँ अनन्त सिद्धों का स्पर्श भी करके आए। क्योंकि है ही एक इन्द्रियवाले, इसलिए स्पर्श से ज्यादा अनुभव तो और किसी भी विषय का कर ही नहीं सकते हैं । चक्षु आदि अन्य इन्द्रियाँ आदि तो कुछ है ही नहीं । अतः देखने आदि की बात तो उपस्थित होती ही नहीं है । और स्वयं सूक्ष्मत्व की जाति के इतने सूक्ष्मतम स्वरूपवाले देहधारी हैं कि उनको सिद्ध का स्पर्श हो भी जाय तो भी क्या अनुभव होगा ? अरे ! यहाँ जब हवा (वायु) स्थूल स्वरूप में है फिर
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति "
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