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भी बहती हुई हवा प्रभु प्रतिमा को या साक्षात् विचरते हुए भगवान को भी स्पर्श कर ले तो भी क्या अनुभव होगा? जबकि सिद्धशिला पर वह तो सूक्ष्मस्वरूपी एकेन्द्रिय है।
पत्तेय तरुं मुत्तुं पंचवि पुढवाइणो सयल लोए। सुहुमा हवंति नियमा, अंतमुहूत्ताउ अद्दिसा ।।
जीवविचार ग्रन्थकार स्पष्ट लिखते हैं कि प्रत्येक वनस्पतिकाय के पेड-पौधों को छोडकर शेष सभी पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय के सभी एकेन्द्रिय जीवों का अस्तित्व संपूर्ण १४ राजलोक में है । वे सभी सूक्ष्मतम स्वरूप में हैं। तथा अदृश्य हैं। हम अपनी चर्म चक्षु से कदापि उन्हें देख ही नहीं सकते हैं। अतः वे केवली के
ज्ञान से ही गम्य एवं ग्राह्य हैं । वे सभी सूक्ष्म जीव मात्र अन्तर्मुहूर्त के आयुष्यवाले हैं। सिर्फ ४८ मिनिट के दो घडी के अंतर्मुहूर्त परिमित काल में उत्पन्न होने तथा मरने के स्वभाववाले हैं । ऐसे ये सभी सूक्ष्म जीव १४ राजलोक में कहीं भी हो उनको उस स्थान-क्षेत्र विशेष से कोई फरक नहीं पडता है । अतः वे सिद्धशिला पर हो या ७ वीं नरक के कोने में हो या हमारे यहाँ के आकाश प्रदेश में हो ... या कहीं भी हो, उससे क्या फरक पडता है? क्षेत्रविशेष से वे सिद्धशिला के ऊपर के भाग में हैं अतः उनको मोक्ष में गए या मुक्त हो गए ऐसा कहना सर्वथा गलत है। ऐसे सूक्ष्म जीवों में अतिव्याप्ति न हो जाय इसलिए कर्म का क्षय होना ही चाहिए। अतः यही लक्षण किया गया है कि- “कर्ममुक्ति किल मुक्तिरेव" कर्म से मुक्ति ही सही मुक्ति है । यह लक्षण करने से एकेन्द्रिय जो सूक्ष्म जीव है वे कर्म सहित, कर्म के बंधनवाले हैं अतः उनकी मुक्ति नहीं समझनी है, परन्तु कर्म के बंधन से मुक्ति को ही सही वास्तविक मुक्ति समझनी चाहिए। इसलिए समस्त लोक में रहने के साथ साथ यदि वे सिद्धशिला पर भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव रहते हैं तो वे संसारी ही कहलाते हैं । सिद्ध कदापि नहीं । अभी उन सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों को अनन्त काल तक संसार चक्र में परिभ्रमण करना ही पडेगा। इस ८४ लक्ष जीवयोनियों में चारों गति में परिभ्रमण करते हुए अनन्त जन्म-मरण बिताने पडेंगे।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा