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काऊर्ध्वगमन का सहज स्वभाव हैअतः कर्मावरणरहित आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है। क्योंकि जड पुद्गल परमाणु स्वरूप जो कार्मण वर्गणा भी उसका भार था, बंधन था वह छूट गया। निकल जाने से आत्मा सीधी ऊर्ध्वगमन करके ऊपर जाती है। मोक्ष जाती है। ठीक इससे विपरीत कर्म के भार के कारण यही संसारी आत्मा संसार में भारवाली बनकर नीचे गिरती है । पतन होता है । पत्थर जैसे भार के कारण पतित होकर नीचे गिरता है ठीक उसी तरह आत्मा भी कर्म के भार के कारण नीचे गिरती है। अधोदिशा में गमन करती है। अब आत्मा की स्वाभाविकता चली गई, नहीं रही और कर्म की स्वाभाविकता आ गई । अतः कर्म की स्वाभाविकता आत्मा के लिए विभाविकता-विकृति कहलाएगी।
जैसे मिट्टी का लेप लगाकर किसी लकडे विशेष को पानी में डाला जाय । लकडा जो सहज स्वाभाविक रूप से हल्का होने के कारण ऊपर ही आता है । लेकिन मिट्टी के भार ने उसे नीचे गमन कराया है। अब वह पानी में नीचे पडा है। जैसे मिट्टी पानी में भीगकर पिघल जाएगी वैसे ही लकडा पुनः उठकर ऊपर आ जाएगा।
दूसरा एक दृष्टान्त शास्त्रों में एरण्ड बीज का मिलता है। एरण्ड बीज जो अपने कवच में बंधा हुआ रहता है लेकिन जैसे ही कवच का मुँह खुलते ही बीज ऊपर उठकर बाहर आता है । यह उसका सहज स्वाभाविक स्वभाव है । ठीक उसी तरह आत्मा का भी
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आध्यात्मिक विकास यात्रा