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ऊर्ध्वगमन
“तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्ताद्” १०-५ । इस तरह सर्व कर्मों का क्षय करके आत्मा सीधी मोक्ष में जाती है । मोक्ष में जाने के लिए उसे सीधे ऊपर ही जाना है । इसीलिए ऊर्ध्वगमन शब्द का प्रयोग तत्त्वार्थसूत्रकार ने किया है । ऊर्ध्वगमन कैसे होता है ? इसको सामान्य दृष्टान्तों से समझाते हुए भी स्पष्ट किया है
१) जैसे एक पानी की टंकी या हौज में पत्थर के साथ बांधकर एक लकडे के टुकडे को पानी में डाल दिया हो और कालान्तर में रस्सी का बंधन तूटने पर पत्थर के बंधन से छुटकारा पानेवाला लकडा सीधा ऊपर आ जाता है। सहज स्वाभाविक रूप से काष्ठ ऊपर ही आएगा और पानी पर तैरेगा । वह अन्य किसी दिशा में न जाते हुए सीधे ऊपर आता है । इस दृष्टान्त की
तरह आत्मा जो कर्म के बंधन से बंधी हुई आत्मा कर्म के बंधन के टलने पर बंधन के अभाव में सहज स्वाभाविक गति से आत्मा भी ऊपर उठकर ऊर्ध्वगमन करती हुई सीधी मोक्ष में सिद्धशिला पर पहुँचती है।
२) अग्निज्वाला – “लौ” की भी ऊर्ध्वगति का स्वभाव होता है । वायु का तिर्छा गमन करने का स्वभाव है । पाषाण के भार के कारण अधोगमन करने का स्वभाव है।
अग्निज्वाला का उर्ध्व गमन
वायु का तिर्यग्गमन पाषाण का अधोगमन
इस तरह सबका अपना-अपना सहज स्वाभाविक स्वभाव है। सहज स्वभाव विपरीत नहीं होता । उल्टा नहीं चलता । जैसे उनका स्वभाव है । ठीक उसी तरह आत्मा
विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति"
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