SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मक्षय के समय ही मोक्ष : क्षयं नीत्वा स लोकान्तं, तत्रैव समये व्रजेत् । : लब्धसिद्धत्वपर्यायः, परमेष्ठी सनातनः ॥ ११९ ।। १४ वे गुणस्थान का कुल काल ही पंच ह्रस्वाक्षर उच्चार मात्र ही है। उसमें पहले के समयों तक तो ८५ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में है। उनमें से १२ उदय में है । उपान्त्य अन्तिम के आगे के पहले समय में ७२ कर्मप्रकृतियों का क्षय, तथा अन्तिम समय में शेष १३ कर्मप्रकृतियों का क्षय करते हैं । तथा जैसे ही क्षय हुआ नहीं कि बस, .. .. समयान्तर भी नहीं करना है, अर्थात् दूसरा समय भी नहीं लेना है और उसी समय में द्रुत गति से कर्म रहित वह आत्मा सीधी लोकान्त में चली जाती है । मुक्ति के धाम में पहुँच जाती है । वह आतमा उसी समय सिद्धपना धारण कर लेती है । बस, अब सिद्धपना जो धारण किया वह अनन्त काल तक एक ही स्वरूप में स्थिर रहेगा। अतः अनन्त काल तक अपरिवर्तनशील रहेगा। यह अन्तिम पर्याय है । वैसे तो संसार में परिभ्रमण काल में इस आत्मा ने अनन्त x अनन्त ऐसी अनन्तानन्त पर्यायें धारण की हैं । शायद संगार की एक भी पर्याय छोडी नहीं होगी। अब पर्यायान्तर भी नहीं करना है । किसी भी प्रकार की नई पर्याय न तो धारण करनी है या न ही वर्तमान कालीन सिद्ध की पर्याय बदलनी है। जी नहीं। यह भी सिद्ध का अर्थ है । सिद्ध बनना मतलब अन्तिम कक्षा की पर्याय धारण करनी है। अन्तिम उसी को कहते हैं जिसके बाद पुनः दूसरी धारण ही न करनी पडे । अपरिवर्तनशील पर्याय धारण करनी है । यद्यपि आत्मा का अस्तित्व अनादि काल से है और भावि में भी अनन्त काल तक रहने ही वाला है । सिद्ध बनने के बाद भी अनन्त काल तक का अस्तित्व है ही । रहता ही है । न तो कभी काल का अन्त आता है और न ही कभी आत्मा के अस्तित्व का अन्त आता है । अतः आत्मा के अस्तित्व का अभाव अनन्त काल में भी कभी नहीं होता है। बौद्ध दर्शन मतावलम्बी जो आत्मा के अस्तित्व का सर्वथा अभाव मानते हैं वे मोक्ष को भी सर्वथा अभावात्मक ही मानते हैं । अतः अभाव का क्या स्वरूप होता है ? जैसे शशशृंग, वन्ध्यापुत्र, खपुष्प, आदि की तरह जिसका सर्वथा अभाव ही मानना है तो फिर अभावात्मक की मुक्ति का वर्णन करना इससे बडी मूर्खता और क्या हो सकती है? यह विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १३६३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy