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________________ ये १३ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं— कोई १ वेदनीय कर्म, आदेय नामकर्म की १, पर्याप्त नामकर्म की १, त्रस नामकर्म की १, बादर नामकर्म की १, मनुष्यायुष्य की १, सुयश नामकर्म की १, मनुष्य गति नामकर्म की १, मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म की १, सौभाग्य नामकर्म की १, उच्च गोत्र की १, पंचेन्द्रिय नामकर्म की १ तथा अन्त में तीर्थंकर नामकर्म की १, ऐसी कुल मिला कर १३ प्रकृतियों का क्षय १४ वे गुणस्थान के बिल्कुल अन्तिम समय करते हैं। अब वे सर्वथा निरावरण बन जाते हैं । कर्म के आवरण का सर्वथा - सर्वांश समूल क्षय हो जाने के पश्चात् आत्मा सीधी ही मोक्ष में पहुँच जाती है । I अनादि से लेकर आज दिन तक के बीते हुए अनन्त काल में प्रथम बार आत्मा कर्मावरणरहित बनती है । बीते हुए अनन्त काल में कभी भी कर्म के बादलों का आवरण क्षीण नहीं हुआ था, नहीं हठे थे, जो अनन्तकाल बाद आज प्रथमबार हटे, क्षीण हुए । बस, बन्धन से पहली बार मुक्ति मिली। संसार की जेल, शरीर की पराधीनता, और कर्म की गुलामी में से आत्मा पहली बार मुक्त हुई । स्व-स्वरूप का, अपने ही शुद्ध स्वरूप का पहली ही बार उसे अनुभव हुआ रसास्वाद हुआ । इस आनन्द की कल्पना कौन कर सकता है ? कर्मों का गुलाम बिचारा क्या उसका स्वाद चखे ? सही अर्थ में उस पूर्ण आनन्द का ख्याल तो उसीको आएगा जो स्वयं मुक्त बना है। सिद्ध बना है । या जो केवली सर्वज्ञ बने हैं, उनको ख्याल आएगा। वे ही उस सिद्ध स्वरूप का वर्णन कर सकते हैं, अन्यथा कोई समर्थ ही नहीं है । सर्वज्ञ प्रभु लोकालोक - ज्ञानधारक है। त्रिकालज्ञानी है । त्रिलोकज्ञानी है | अतः केवलज्ञान से समस्त लोकालोकव्यापी, सर्वजीव एवं सर्व परमाणुव्यापी परमात्मा के लिए अब क्या छिपा हुआ है ? जहाँ सब कुछ हस्तामलकवत् या प्रदीपवत् प्रत्यक्षीकरण होता है, वहाँ क्या शेष रहता है ? कुछ भी नहीं । आज जो भी और जितना भी ज्ञान उपलब्ध है, उपयोग में है, या जगत् में आया है वह सब एक मात्र सर्वज्ञ परमात्मा से ही आया है । जैसे नदियों का मूल हिमालयादि पर्वत होते हैं, वहाँ से स्रोत बहते रहते हैं । ठीक उसी तरह ज्ञान का मूल उद्गम स्रोत सर्वज्ञ परमात्मा ही होते हैं । यह उन्हीं की असीम कृपा का परिणाम है कि आज ऐसे कलियुग में तत्त्वों का यथार्थ एवं गहन ज्ञान उपलब्ध है । मोक्ष में गई हुई कोई मुक्तात्मा-सिद्धात्मा कहने के लिए पुनः संसार में आने ही नहीं है । आखिर क्यों आएंगी ? अशरीरी जो ठहरे । अतः सिद्धों का स्वरूप तथा सिद्ध बनने की इस प्रक्रिया का भी सारा स्वरूप सर्वज्ञ प्रभु ही वर्णित करते हैं । गुणस्थानों का सारा स्वरूप तथा किस गुणस्थान पर क्या होता है ? इस सारी प्रक्रिया का स्वरूप सर्वज्ञ प्रभु ने ही वर्णित किया है । १३६२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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