________________
तरह कुल १२ प्रक्रिया उदय में रहती हैं । अयोगी को किसी भी कर्म की उदीरणा तो करनी ही नहीं है । अतः वह तो सवाल ही नहीं है । इसी तरह बन्ध में भी बिल्कुल जीरो । किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध तो संभव ही नहीं है।
अब तो अन्त में मोक्ष में जाने की तैयारी करनी है । इसलिए उदय और सत्ता में से समूल क्षय-नष्ट करनी ही है। तभी मुक्ति संभव होगी। अन्यथा कर्म के रहते तो मुक्ति संभव ही नहीं है । इसलिए अयोगी महात्मा १४ वे गुणस्थान के उपान्त्य और अन्त्य समय में इस तरह इन दो विभागों में इन सत्तागत ८५ प्रकृतियों का समूल क्षय (नाश) करना प्रारंभ करते हैं।
वे प्रकृतियाँ हैं- शरीर नामकर्म की ५, बंधन नामकर्म की ५, संघातन नामकर्म की ५, अंगोपांग नामकर्म की ३, वर्ण नामकर्म की ५, रस नामकर्म की ६, संघयण नामकर्म की ६, स्पर्श नामकर्म की ८, गन्ध नामकर्म की २, नीचगोत्र की १, अनादेय नामकर्म की १, दौर्भाग्य नामकर्म की १, अगुरुलघु नामकर्म की १, उपघात नामकर्म की १, पराघात नामकर्म की १, निर्माण नामकर्म की १, अपर्याप्त नामकर्म की १, उच्छ्वास नामकर्म की १,अपयश नामकर्म की १, विहायोगति नामकर्म की १,शुभ नामकर्म की १,अशुभ नामकर्म की १, स्थिर नामकर्म की १, अस्थिर नामकर्म की १, देवगति की १, देवानुपूर्वी की १, प्रत्येक नामकर्म की १, सुस्वर की १, दुःस्वर की १ तथा वेदनीय कर्म की १ = इन ७२ प्रकृतियों का सबसे पहले पाँच ह्रस्वाक्षर परिमित कालवाले १४ वे गुणस्थान के उपान्त्य अर्थात् अन्तिम के पहलेवाले समय में क्षय करती है। इन कर्मप्रकृतियों को "मुक्तिपुरीद्वारार्गलोपमाः" कहते हैं। बात भी बिल्कुल सही है। मोक्ष में जाने के प्रवेश द्वार में विघ्नभूत-अन्तरायरूप अर्गला समान ये प्रकृतियाँ हैं । अतः इनका जब तक समूल क्षय न किया जाय तब तक मुक्ति नहीं होती है, रुकती है । इसलिए इनका सर्वथा क्षय करते हैं । निर्जरा करके खपाते हैं । यह बात उपान्त्य समय की थी। उपान्त्य समय में ७२ कर्म की प्रकृतियाँ खपाई । अब अन्तिम समय का क्रम आया। जहाँ हमारी आँख की पलक झपकती है उतने में असंख्य समय बीत जाते हैं । यहाँ गिनति के सीमित समय का ही काल है । वह भी मात्र पंच ह्रस्वाक्षर अ, इ, उ, ऋ और लू का उच्चार करने जितना काल । बस, अब मात्र इतने समय में अयोगी महात्मा को सब कुछ करना है । उपान्त्य समय में ७२ कर्मप्रकृतियों का क्षय करके बची हुई १३ प्रकृतियाँ अन्तिम समय में खपाते हैं।
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
१३६१