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कुछ उपचार ध्यान के अंग है वह सर्व व्यवहारनय की अपेक्षा से ध्यानरूप ही जानना चाहिए । अष्टांग योग की प्रक्रिया में... जो ध्यानादि की प्रक्रिया है, या मनोयोग को साधने हेतु एकाग्रताकारक जो ध्यान है, उसे व्यवहारध्यान कहते हैं। जबकि ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकात्मता जिसमें हो जाय अर्थात् आत्मा ही आत्मा का ध्यान करती हुई आत्मरूप आत्मामय ही बन जाय उसे निश्चय नय का ध्यान कहते हैं ।
१४ वे अयोगी गुणस्थान पर कर्मप्रकृतियाँ
अनादि काल से आत्मप्रदेशों पर लगे हुए कर्म... अभी भी आत्मा पर चिपके हुए हैं । यद्यपि क्षपक श्रेणी करके कर्मों का क्षय करती हुई आत्मा १४ वे गुणस्थान पर पहुँची है, अयोगी बन गई । यहाँ भी कर्म सत्ता में पडे हैं। कितने उदय में है और कितने सत्ता में पडे हैं ? यद्यपि अब महान अयोगी महापुरुष नए कर्मों का उपार्जन (बंध) नहीं करते हैं, फिर भी पहले के कई कर्म बांधकर रखे हैं, वे अभी भी सत्ता में पडे हैं। आठ कर्मों में से ४ घाती कर्मों को तो कभी के क्षय कर दिये हैं। नये भी बांधने ही नहीं है । अतः वे ४ घाती कर्म तो सत्ता में भी नहीं रहे हैं। सत्ता में से सर्वथा लोप हो चुके हैं। फिर भी शेष ४ अघाती कर्म जो सत्ता में पडे हैं उनमें से किस कर्म की कितनी प्रकृतियाँ सत्ता में, उदयादि में पड़ी हैं उसे भी जान लेना आवश्यक है ।
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आठ कर्मों की कुल उत्तर (अवान्तर) प्रकृतियाँ १५८ हैं । इनमें से ४ अघाती कर्मों की १११ कुल प्रकृतियाँ होती हैं । उनमें से घाती कर्म रहित अयोगी अवस्था में १४ वे गुणस्थान पर ... ८५ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती है । जिसमें नामकर्म की ८०, गोत्र कर्म की २, वेदनीय कर्म की २, आयुष्य कर्म की १ = कुल ८५ । इस तरह ८५ अवान्तर कर्मप्रकृतियाँ चारों अघाती कर्मों की सत्ता में रहती हैं। हाँ, इनमें भी गोत्र तथा वेदनीय कर्मों की दो-दो प्रकृतियों की गणना की गई है । नीच और उच्च गोत्र दोनों हैं। दोनों में से कोई १ ही रहेगी । इसी तरह शाता - अशाता की २ प्रकृतियाँ हैं । ये भी दोनों एक साथ न रहे तो १ गिनें । इससे ८५ 1 २ = ८३ ही रही । इतनी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं । यह सत्ता का विचार है । सत्ता में रहने का तात्पर्य यह नहीं है कि सभी उदय में भी रहे ही । नहीं । सत्ता में रहने के बावजूद भी उदय में न भी रहे। इस तरह उदय की दृष्टि से विचार करने पर सिर्फ १२ प्रकृतियाँ ही उदय में रहती हैं १४ वे गुणस्थान पर । अघाती की है। शरीरादि -आयुष्यादि की आवश्यकता अनिवार्य है । अतः ४ आयुष्य में से १ मनुष्यायु, १ गोत्र कर्म की, १ वेदनीय कर्म की तथा ९ कर्मप्रकृतियाँ नामकर्म की
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= इस
आध्यात्मिक विकास यात्रा
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