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________________ स्पष्टीकरण १) प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान पर काल (अभव्य जीव की अपेक्षा से) अनादिअनन्त का है। जबकि भवी जीव की अपेक्षा से अनादि सान्त स्थिति है । मिथ्यात्व है ही अनादि कालीन । अतः इसका काल जघन्य नहीं हो सकता। हाँ, क्षय करने में अन्तर्मुहूर्त ही लगता है। २) दूसरे सास्वादन गुणस्थान का काल जघन्य से १ समय मात्र का ही है, जबकि उत्कृष्ट से६ आवलिका का है । (असंख्य समयों की १ आवलिका बनती है । काल गणना पद्धति से यह समझना चाहिए। पहले आए हुए विषय को देखें) ३) तीसरे मिश्र गुणस्थान का काल-अन्तर्मुहूर्त परिमित है। ४) चौथे सम्यक्त्व गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का है । और उत्कृष्ट से ३३ सागरोपम से कुछ अधिक का है। ५, ६) पाँचवे गुणस्थान का काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्व कोटि वर्ष का है। इसी तरह छटे गुणस्थान का भी काल इतना ही देशोन पूर्व कोटि वर्ष उत्कृष्ट से हैं। ७) सातवे गुणस्थान से लेकर ८, ९, १०, ११, और १२ वे इन सब गुणस्थान का जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट से सब काल अन्तर्मुहूर्त का है। यहाँ कहीं ज्यादा ठहरना ही नहीं है। १३ वे गुणस्थान पर सर्वज्ञ केवली बनकर कुछ न्यून ऐसे पूर्व कोटि वर्ष का है। • तथा जघन्य काल तो अन्तर्मुहूर्त का है । मरुदेवी माता आदि जैसे अनेक हैं जिनको केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त परिमित काल में ही आयुष्य की समाप्ति हो गई और मोक्ष में चले गए। ऐसे केवलज्ञानी को अंतःकृत् केवली कहते हैं । इन अन्तःकृत केवलियों के केवलज्ञान का १३ वे गुणस्थान पर समस्त काल सिर्फ अन्तर्मुहूर्त मात्र ही रहता है। अन्त में जाकर १४ वे गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल ५ ह्रस्वाक्षर मात्र काल ही है। अ इ उ ऋ और ल इन पाँच ह्रस्व अक्षरों का उच्चार करने में जितना समय लगता है सिर्फ उतना ही समय १४ वे गुणस्थान पर लगता है। इस तरह सभी गुणस्थान की तुलना करके देखा जाय तो सबसे कम से कम अल्पतम काल १४ वे गुणस्थान का है । फिर दूसरा नंबर २ रे गुणस्थान सास्वादन का६ आवलिका १३५६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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