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आखिर आत्मा अपने आप में एक पूर्ण, स्वतंत्र द्रव्य है । चेतन द्रव्य है । जबकि मन-वचन-काया- इन्द्रियाँ ये सभी योग जड हैं, अजीव हैं । इनकी अब कोई आवश्यकता ही नहीं है । सिद्धावस्था में इन जड योगों का आत्मा के लिए कोई उपयोग - कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है । अतः इन तीनों योगों का सर्वथा त्याग करना, छोड कर सर्वथा उनसे अलग ही हो जाना यह मुक्ति की तैयारी है। मुक्ति में जिस और जैसे स्वरूप को सदाकाल रखना है उसके लिए यहाँ देहस्थावस्था में ही सारी तैयारी करके फिर मोक्ष में जाना है । इसलिए यहाँ पर अयोगी बनना अर्थात् योगों के बंधन से सर्वथा मुक्त बनना ही मुक्ति का स्वरूप है, उसके अनुरूप वैसी ही प्रवृत्ति करनी है। अतः अयोगी बनकर १४ वे गुणस्थान पर शैलेशीकरणादि करके बस, अब अन्त में देह छोडकर जाने की तैयारी कर रहे हैं । अन्तिम गुणस्थान अयोगी का है। अयोगी बनने का है, अयोगी बने हुए का है।
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सबसे कम समय १४ वे गुणस्थान का
चौदह ही गुणस्थान का जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट काल पहले भी देख आए हैं
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अनादि
अनन्त
उत्कृष्ट आवलिका
मिथ्यात्व
अन्तर्मुहूर्त
३३ सागरोपम
उत्कृष्ट से कुछ न्यून कोटि वर्षों का काल
- अन्तर्मुहूर्त
मिश्र
देशोन पूर्व कोडी वर्ष
अविरत
देशविरत
अप्रम
क्षपक श्रेणी
जघन्य एक समय अनादि - सान्त
सूक्ष्म सर्प
अनिवृति
उपशांत माहे
क्षीण मोह
जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
सयोगी केवली
अवाग
पंच हस्वाक्षर
उ र मात्र काल
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