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________________ के लिए अनिवार्य हैं, उपयोगी हैं। कम-ज्यादा मिलते हैं। संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों को पूर्ण रूप से तीनों योग मिलते हैं । परन्तु चेतन जीवात्मा इन योगों का यदि सही सदुपयोग कर कर्माश्रव सके अर्थात् आत्मा अपनी कर्म निर्जरा करने के लिए यदि इन योगों का उपयोग करे, तो ही उत्तम लाभ है । तो ही योगों का सही उपयोग-सदुपयोग है । अन्यथा दुरुपयोग में पुनः कर्मबंध ही प्रधान रूप से होता है । यदि कर्मबंध हुआ तो फिर वही चक्र संसार परिभ्रमण का रहेगा। . साधक बने हुए योगी महात्मा जिसने गुणस्थानों के सोपानों पर चढने का रखा है उसने आत्मलक्ष का उपयोग भाव बनाकर ... जितेन्द्रिय बनते हुए ... आगे बढते हुए व्रत विरति को धारण करते हुए योगों पर लगाम रखने का काम शुरु किया । आगे महाव्रत धारण करके संसार का त्यागी महात्मा बना । अब तो तीनों योगों पर पूरा नियंत्रण आ गया । उसमें भी प्रमत्त से अप्रमत्त योगी बना और अपने तीनों योगों पर विजय पाकर.. .. श्रेणी के श्रीगणेश करता है । अब आगे पहुँचकर योगी तो क्या महायोगी बनता है। उपयोग भाव की जागृति में उपयोगी बनता है । फिर १२ वे गुणस्थान पर पहुँचकर वीतरागी बनता है। यह राग-द्वेषादि की प्रवृत्ति का संपूर्ण त्यागी... वीतरागी बनकर १३ वे गुणस्थान पर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बनता है । फिर भी मन-वचन-काया के तीनों योगों की प्रवृत्तियाँ चालू ही रहती है। पहले छद्मस्थावस्था में ये तीनों योग जो मोहनीय कर्म के आधीन राग-द्वेष में चलते थे वे अब मोहनीय कर्म के अभाव में मुश्किल से १०% से २०% ही कार्यशील रहते हैं। शरीर की आहार-निहार-विहारादि की प्रवृत्ति में कार्यशील रहता है । मनोयोग से केवली को कुछ भी चिंतन-मनन तो करना रहता ही नहीं है । अतः भाव मन की कोई प्रवृत्ति केवली को होती ही नहीं है । अतः मन होते हुए भी इसका विशेष कोई उपयोग नहीं रहता है। इस तरह १३ वे गुणस्थान के सयोगी सर्वज्ञ महापुरुष अब अयोगी की कक्षा प्राप्त करने अन्तिम कक्षा में जा रहे हैं। योगी से सयोगी और सयोगी से योगनिरोधी और अन्त में अयोगी बनने की अन्तिम कक्षा में प्रवेश करते हैं। १३५४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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