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________________ 1 का है । और उसके पश्चात् तो अन्तर्मुहूर्त का आता है । अन्त में सबसे ज्यादा अधिक से अधिक काल मिथ्यात्व का है क्योंकि निगोद में अनन्त काल बिताया जीव ने फिर ... निगोद से बाहर निकल कर भी जीव ने इस ८४ लक्ष जीव योनियों के संसार चक्र में घूमते हुए असंख्य से अन्त काल बिताया। इस तरह संसार में अनादि से अनन्त काल तक जीव मिथ्यात्व गुणस्थान पर रहा। अब १४ वे गुणस्थान के पश्चात् मुक्त होकर जीव मोक्ष में अनन्त काल तक रहेगा । १४ वे गुणस्थान पर अयोगी की ध्यान साधना I 1 एक तरफ इस १४ वे गुणस्थान अयोगी केवली का काल मात्र पंच ह्रस्वाक्षर के उच्चारण मात्र का बताया है । अक्षरों में भी व्यंजनाक्षरों की गणना न की । क्योंकि..... व्यंजनाक्षरों के उच्चारण में समय दुगुने से भी ज्यादा जाता है । इसलिए ह्रस्वाक्षर लिए । दीर्घाक्षर नहीं । आ, ई, ऊ, ये दीर्घ हैं । दीर्घ स्वर के उच्चारण में भी दुगुना समय लगेगा। इसलिए ह्रस्व स्वर - अ, इ, उ, ऋ, लृ बस इतने और ऐसे पाँच छोटे अक्षरों के उच्चारण मात्र जितना काल गिना है । इस तरह काल की गणना करने के लिए हस्व अक्षरों उनमें भी स्वरों के उच्चारण का मापदंड लिया है। फिर भी इसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त की गणना में ही गिनेंगे। दूसरी तरफ आपको आश्चर्य इस बात का लगेगा कि ... इतने अल्प- कम से कम काल में भी ध्यान साधना करते हैं अयोगी महापुरुष । वह कौन सा ध्यान ? कैसा ध्यान है ? कैसे करते हैं ? उस ध्यान में क्या और किसका ध्यान करते हैं यह स्पष्ट करते तत्रांनिवृत्तिशब्दान्तं समुच्छिन्नक्रियात्मकः । चतुर्थं भवति ध्यान-मयोगिपरमेष्ठिनः ।। १०५ ।। समुच्छिन्ना क्रिया यत्र, सूक्ष्मयोगात्मिकापि ही । समुच्छिन्न क्रियं प्रोक्तं, तद्द्वारं मुक्तिवेश्मनः ॥ १०६ ॥ शुक्ल ध्यान के ४ प्रकार बताए हैं जिनकी विचारणा पहले काफी कर चुके हैं । यहाँ I शुक्ल ध्यान के चौथे प्रकार की ध्यान साधना होती है। चौथा प्रकार समुच्छिन्न क्रिया रूप ध्यान का है । तीसरा भेद जो सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति रूप था । और उसमें ... . सूक्ष्म क्रिया की निवृत्ति नहीं होने के कारण अनिवृत्ति कहा है। इस प्रकार की सूक्ष्म क्रिया केवली भगवन्त को भव के अन्तिम समय तक रहती ही है । इसलिए अनिवृत्ति शब्द का प्रयोग किया है । न निवृत्ति इति अनिवृत्ति । "अ" अक्षर यहाँ निषेधार्थक है । इस क्रिया की विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति " १३५७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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