________________
इससे ज्यादा संहरण करके एक आकाशप्रदेश में सूक्ष्म घन रूप नहीं हो जाता है। श्री विशेषावश्यक भाष्य में कहते हैं कि. संहार संभवाओ, पएसमेत्तंमि किं न संठाइ?।
सामत्था भावाओ, सकम्मयाओ सहावाओ ।। ३१६४।। जब आत्मप्रदेशों के संकुचन (संहरण) करने का अर्थात् घनीभूत करने का सामर्थ्य हो, संभव है तो फिर ऐसा आकुंचन क्यों नहीं कर लेते हैं कि जिससे आत्मा मात्र एक ही आकाश प्रदेश में घनीभूत होकर समा जाय? इसके उत्तर में कहते हैं कि आत्मप्रदेशों का आकुंचन करके घनीभूत करने का तथाप्रकार का सामर्थ्य (योग का) अभाव होने से, तथा कर्मसहितता होने से, तथा स्वाभाविक रूप से ही २/३ भाग से अधिक संहरण एवं सूक्ष्म घनीभूत हो ही नहीं सकता है । संभव ही नहीं है।
शैलेशीकरण की क्रिया करके अन्त में देह छोडने के समय शरीर के अन्दर के रिक्त स्थानों को भर देता है । इससे आत्म प्रदेश घनाकार स्थिति में आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में मूलभूत शरीर की अवगाहना का एक तृतीयांश भाग घट जाता है और दो-तृतीयांश भाग शेष रहता है । बस, अब आत्मा शरीर का सर्वथा त्यागकर.. देह छोडकर....सीधी मोक्ष में प्रयाण करती है।
__ अस्यान्त्येङ्गोदयच्छेदात् स्वप्रदेशघनत्वतः ।
करोत्यन्त्याङ्गसंस्थान-त्रिभागोनावगाहनम् ।। १०३ ।। सयोगी केवली नामक १३ वे गुणस्थान के अन्तिम समय में शरीरनाम कर्म के उदय का सर्वथा नाश (क्षय) हो जाने से अपने स्वयं के आत्मप्रदेशों का घनीभूत स्वरूप होने से अन्तिम (चरम) शरीर के आकार की त्रिभागन्यून (कम) अवगाहना करते हैं। १४ वा अयोगी केवली गुणस्थान का स्वरूप
. अथायोगिगुणस्थाने, तिष्ठतोऽस्य जिनेशितुः ।
लघु पंचाक्षरोच्चार-प्रमितैव स्थितिर्भवेत् ।। १०४ ।। अब गुणस्थानों के विषय का वर्णन करते-करते अन्त में अन्तिम १४ वे गुणस्थान का वर्णन जो क्रम प्राप्त है बह करता हूँ।
गुणस्थान की व्यवस्था में...अनुक्रम से अन्तिम १४ वाँ गुणस्थान अयोगी केवली का गुणस्थान है। केवली के २ गुणस्थान हैं- १२ वाँ और १३ वाँ । वीतरागी के ३
१३५२
आध्यात्मिक विकास यात्रा