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अवगाहनी प्रमाण में लोकाकाश प्रमाण व्याप्तिवाला क्यों नहीं बनता है ? इसके भी उत्तर में... कहते हैं कि... शरीर नाम कर्म का सर्वथा उदयविच्छेद (उदय में से अभाव) हो चुका है। दूसरी आत्मप्रदेशों की अपनी कोई स्वतंत्र अवगाहना विशेष होती ही नहीं है । तथा इसके लिए शुद्ध आत्मद्रव्य की दृष्टि से आत्मा (सिद्ध) का वर्णन शास्त्रों में (विशेषावश्यक भाष्यादि में) जहाँ किया गया है वहाँ " से न दीहे, से न हस्से" इत्यादि पदों से आत्म द्रव्य की अवगाहना होती ही नहीं है यह स्पष्ट कहा गया है। एक मात्र, शरीर की अवगाहना के साथ साथ ही आत्मप्रदेशों की अवगाहना शरीरानुरूप होती है। अब शुद्ध आत्मद्रव्य रूप सिद्ध की जो अवगाहना होनेवाली है वह स्वयं अपनी आत्मद्रव्य की स्वाभाविक तो है ही नहीं । अतः शरीर की उपाधिगत अवगाहना होनेवाली है। इसलिए पूर्व प्रयोग जन्य यह उपाधिगत अवगाहना पहले के देह के अनुरूप ही होती है ।
पूरे शरीर में व्याप्त -
आत्मा
रिक्त स्थानों की पूर्ति के पश्चात् घनीभूत आत्म प्रदेश
इसलिए १/३ रिक्त (खाली) स्थान भर जाने के कारण २/३ भाग जितने घनीभूत आत्मप्रदेश हो जाते हैं । इससे कम ज्यादा नहीं हो सकता है
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अथवा योगनिरोध की क्रिया करने के समय ही आत्मप्रदेशों का संहरण होता है, और उस अवस्था में सयोगीपना और सकमींपना भी है ऐसा कर्मसहित सयोगी केवली के योग का उस समय उतना ही सामर्थ्य होता है जिसके कारण वे शुषिर भाग जितना ही संहरण करके २/३ जितना ही होता है । परन्तु इससे ज्यादा संहरण संभव ही नहीं है ।
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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