SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शैलेशीकरण-योग निरोध की क्रिया के पश्चात् अब अयोगी बनकर सदा के लिए मुक्ति के धाम को प्राप्त करने के लिए महापुरुष शैलेशीकरण करते हैं । १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त के भी अन्तिम समय में शरीर नामकर्म के उदय का नाश होने से अपने आत्मप्रदेशों का घनीभूत स्वरूप होने से अन्त्य (चरम) शरीर के आकार से त्रिभाग न्यून अवगाहना करते हैं । अर्थात् अन्तिम समय में...औदारिकद्विक, अस्थिरद्विक, विहायोगतिद्विक, प्रत्येक त्रिक, संस्थान षट्क, अगुरुलघुचतुष्क, वर्णादि चतुष्क, निर्माण, तैजस, कार्मण, प्रथम संघयण, स्वरद्विक और किसी भी १ वेदनीय (शाता अथवा अशाता) इन ३० कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद होता है । यहाँ पर अंग और उपांग का उदय विच्छेद होने के कारण वे चरम शरीरी महापुरुष की जो शरीर की उँचाईअवगाहना विशेष होती है उसकी विभाग न्यून अवगाहना करते हैं। इस तरह लघु अवगाहना कैसे हो जाती है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि अपने आत्मप्रदेश घनीभूत हो जाने से अर्थात् चरम अंग और उपांगगत नासिका आदि के छिद्रों का पूरण (भरने से) आत्मप्रदेश घननिबिड हो जाते हैं । ऐसा घनीभूत निबिड कर देने से अब पेट आदि अंगों के रिक्त स्थान (भाग) खाली नहीं बचते हैं । इस तरह घनीभूत होने से अवगाहना त्रिभागन्यून हो जाती है। ऐसा शास्त्र में निर्देश है। वैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और आत्मा नामक ये ४ द्रव्य (पदार्थ) स्वाभाविक रूप से घन संबंधवाले अर्थात् शुषिरता रहित संबंधात्मक पिंडवाले हैं । इससे आत्मा के प्रदेशों का संबंध “शरीर" नामक नामकर्म के उदय के कारण शरीरव्याप्ति के अनुकूल था । परन्तु अब उस कर्म का उदय विच्छेद (नाश–क्षय) हो जाने के कारण शरीर में ही व्याप्त रहने के कारणरूप कर्म का क्षय-नाश हो जाने से आत्मप्रदेशों का शरीर में रहे हए ही घनसंबंधवाला होने का कार्य होता है । घन कहने का मुख्य कारण यह है कि शरीर का रिक्त भाग (खाली स्थान) प्रायः १/३ भाग जितना ही संभवित है । इसलिए रिक्त स्थानों की पूर्ति हो जाने के पश्चात् अब घनीभूत आत्म प्रदेशों का १/३ भाग ही शेष रहता प्रश्न- यहाँ शास्त्रीय चर्चा में प्रश्न खडा किया है कि शरीर नामकर्म के उदय से आत्मा शरीर व्याप्त बनती है । तो फिर शरीर नामकर्म के उदय का क्षय (नाश) हो जाने के बाद भी आत्मा शरीर में २/३ भाग ही क्यों अवशिष्ट रहती है ? अंगुल के असंख्यातवें भाग जितना सूक्ष्मघन क्यों नहीं बन जाता है ? अथवा तो फिर अपनी स्वयं की संपूर्ण १३५० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy