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________________ ध्यान का यह स्वरूप छास्थ जीवों की दृष्टि से है । अतः इस प्रकार का ध्यान १२ वे गुणस्थान पर्यन्त होता है । इस प्रकार के ध्यान को निश्चल-स्थिर अध्यवसाय एक पदार्थ विषयक कहा है। १३ वे गुणस्थान पर सयोगी केवली भगवान को भाव मन रूप चिन्तनात्मक व्यापार नहीं रहता है । इसलिए मानसिक व्यापार ही नहीं रहता है । क्योंकि सर्वज्ञ इन्द्रियों से निरपेक्ष होते हैं । इसलिए सर्वज्ञ केवली के लिए योग निरोध यही ध्यान कहलाता है । इसलिए उनको “एकाग्रचिन्ता निरोधात्मक ध्यान" की व्याख्या नहीं लागू होती । यह व्याख्या हमारे जैसे छद्मस्थों के लिए लागू होती है । स्पष्ट शब्दों में कहा जाय तो १३ वे-१४ वे गुणस्थान पर जो ध्यान का स्वरूप है वह छद्मस्थों के ध्यान से सर्वथा भिन्न कक्षा का ही है । १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान के अन्त में मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापार के निरोध का अर्थात् योगनिरोध का कार्य शुरु किया जाता है । उसमें सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक तीसरे प्रकार का शुक्लध्यान बताया है । योंग निरोध के पश्चात् शैलेशीकरण की प्रक्रिया करते हैं। उसके पश्चात् चौथे समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान की साधना रहती है। इन दोनों प्रकार के ध्यानों में मानसिक व्यापार को अवकाश ही नहीं है। फिर भी ये दोनों ध्यान के रूप में पहचाने जाते हैं। इसलिए मात्र "एकाग्रचिन्ता निरोधात्मक ध्यान” ही ध्यान का लक्षण नहीं है । इस लक्षण में एक मात्र "चिन्ता” अर्थात् मन के मानसिक व्यापार का ही निरोध करना है। बात भी सही है कि छद्मस्थावस्था में जहाँ मोहकर्म के उदय के कारण राग-द्वेषादि की मानसिक प्रवृत्ति ही ज्यादा है इसलिए ऐसा लक्षण मनोयोग का व्यापार रोकने के लिए ध्यान का लक्षण इस प्रकार किया गया है । इसमें अशुभ अध्यवसायात्मक मनोयोग के व्यापार का निरोध करना है परन्तु काययोग के निरोध की बात इस लक्षण में नहीं की है । इसलिए १३ वे गुणस्थान पर ध्यान किया जाता है और उसमें भी अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में जो कक्षा ध्यान की है वह योग निरोधात्मक है । इस योग निरोध में और ऊपर जो चिन्तानिरोध दिया है उसमें अन्तर यही है कि चिन्तानिरोध में सिर्फ एक स्थूल मनोयोग के अशुभ व्यापार का निरोध है। और... योग निरोध में मन-वचन-काया के तीनों का स्थूलयोग फिर क्रमशः सूक्ष्म योगों का निरोध करना है । यह भी ध्यानपूर्वक ही होगा। अतः स्थूल काययोग के व्यापार को रोकना (निरोध) को भी ध्यान कहते हैं । आत्मप्रदेशों की निष्पकंपता यह (चरम कक्षा की स्थिरता) भी ध्यान है । ध्यानजन्य साध्यरूप फलविशेष है तथा अन्त में जाकर सयोगी से अयोगी बनने की कक्षा में चरम कक्षा का अन्तिम ध्यान आता है। वह है शक्लध्यान का चौथा भेद। विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति" १३४९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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