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“तत्येक-काययोगाऽयोगानाम् ” ९ - ४२, तत्त्वार्थसूत्र के इस सूत्र से वाचकमुख्यजी ने ... चार प्रकार के शुक्लध्यान में से किसको कौन सा ध्यान रहता है यह सूचित किया है। इसमें ३ योग में से एक योगवाले योगी को (काय योग) और अन्त में अयोगी को क्रमशः एक एक प्रकार का शुक्लध्यान होता है। शुक्लध्यान के प्रथम भेद का ध्यान “पृथक्त्व-वितर्क सविचार नामक ध्यान... मन, वचन और काया के तीनों योगों का जिसको व्यापार होता है ऐसे महात्माओं को होता है। तथा दूसरे प्रकार का एकत्व वितर्क- अविचार नामक शुक्लध्यान ३ में से एक योगवाले को होता है । तथा तीसरे प्रकार का सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक शुक्लध्यान सिर्फ काययोग के व्यापारवाले सयोगी केवली को १३ वे गुणस्थान पर रहता है । तथा चौथे प्रकार का व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान सिर्फ अयोगी महापुरुष को ही होता है । अर्थात् योग व्यापार (क्रिया) रहित ऐसे अयोगी को होता है । इस तरह चारों प्रकार के शुक्ल ध्यान को करनेवाले भिन्न-भिन्न अधिकारी ध्याताओं का निर्देश एक छोटे से सूत्र से कर दिया है।
किसी जलते हुए दीपक को भिन्न भिन्न दिशा की हवा लगने पर दीपक की ज्योति (लौ) अस्थिर रहती है । स्थिर नहीं रह पाती है । ठीक उसी तरह आत्मा के अध्यवसाय भी अस्थिर रहते हैं .. । जैसे हवा का झोखा बन्द हो जाता है । या हवा बहनी बन्द हो जाती है तब दीपक की ज्योति बिल्कुल स्थिर हो जाती है । ठीक उसी तरह आत्मा के अध्यवसायों को स्थिर करने के लिए मोह के राग- -द्वेषादि सर्वथा रोककर ज्ञान की धारा तत्त्व पर स्थिर करना ही श्रेष्ठ ध्यान है। याद रखिए, देह पर - श्वास पर या किसी भी अंगविशेष पर स्थिर होना, या मन को स्थिर करना यह ध्यान नहीं है। ऐसे देह ध्यान से निर्जरा नहीं होती है । इसलिए देह से ऊपर उठकर... बाहर निकलकर ... देहातीत अवस्था में अपनी दीपक की ज्योती स्वरूप जैसे ज्ञान की धारा (अध्यवसाय विशेष की धारा) को आत्मा, परमात्मा, मोक्षादि तत्त्वों के विषय पर .. स्थिर करना इस प्रक्रिया को ध्यान कहते हैं । हवा के झोखे की तरह बहती हवा के आते ही ज्योति की स्थिरता जैसे टूट जाती है और अस्थिर हो जाती है ठीक उसी तरह राग- द्वेष की धारा ... . (मोह कर्म की धारा) बीच में आते ही ज्ञानधारा की स्थिरता तूट जाती है । अतः अध्यवसाय धारा की निश्चल दीपशिखावत् स्थिति को ध्यान कहते हैं । ऐसे शुद्ध ध्यान में मन की स्थिरता पर लक्ष्य रखने की अपेक्षा ज्ञान धारा की स्थिरता पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। किसी भी स्वरूप में ज्ञान की अध्यवसाये धारा एक विषय पर स्थिर रूप से रहे तब ज्ञान खुलता है । विषय का तत्त्व स्पष्ट होता है । निर्जरा का प्रमाण बढता है तथा कर्मक्षय की मात्रा बढने गुणों का प्रमाण में प्रगटीकरण भी बढता है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा